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________________ ( १२ ) दण्ड आदि पुद्गल ग्रहणसे आत्तपुद्गल हैं । मिथ्यात्व आदि परिणामोंसे अपने किये गये पुद्गल परिणामसे आत्तपुद्गल हैं । उपभोगसे अपने किये गये गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोग से आत्तपुद्गल हैं। खान-पानके द्वारा अपने किये गये पुद्गल आहारसे आत्तपुद्गल हैं । अनुराग ग्रहण किये गये पुद्गल ममत्वसे आत्तपुद्गल हैं और स्वाधीन पुद्गल परिग्रहसे आत्तपुद्गल हैं । इन सबका वर्णन इस अनुयोगद्वार में किया गया है । अथवा पुद्गलात्तका अर्थ पुद्गलात्मा है । पुद्गलात्मासे रूपादि गुणवाला पुद्गल लिया गया है । अतः उसके गुणोंकी षट्स्थानपतित वृद्धि आदिका इस अनुयोगद्वार में विचार किया गया है । २० निधत्त - अनिधत्त - इस अनुयोगद्वार में बतलाया है कि जिस प्रदेशाग्रका उत्कर्षण और अपकर्षण तो होता है पर उदीरणा और अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण नहीं होता उसकी निधत्त संज्ञा है । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे निधत्त भी चार प्रकारका है और अनिधत्त भी चार प्रकारका है। इस विषय में यह नियम है कि दर्शनमोहनीयकी उपशामना या क्षपणा करते समय मात्र दर्शनमोहनीय कर्म अनिवृत्तिकरण में अनिधत्त हो जाता है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते समय मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनिवृत्तिकरण में अधित हो जाता है और चारित्रमोहनीयकी उपशामना और क्षपणा करते समय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में सब कर्म अनिधत्त हो जाते हैं । तथा अपने अपने निर्दिष्ट स्थानके पूर्व दर्शन मोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और शेष सब कर्म निघत्त और अनिधत्त दोनों प्रकार के होते हैं । यह अर्थपद हैं, इसके अनुसार चौबीस अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर इस अनुयोग - द्वारका कथन करना चाहिए । २९ निकाचित-अनिकाचित- इस अनुयोगद्वार में बतलाया है कि जिस प्रदेशाग्रका न तो अपकर्षण होता है, न उत्कर्षण होता है, न अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है और न उदीरणा होती है। जिसके ये चारों नहीं होते उसकी निकाचित संज्ञा है । यह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेदसे चार प्रकारका है। इसके विषय में भी यह नियम है कि पूर्वोक्त प्रकारसे अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करने पर सब कर्म अनिकाचित हो जाते हैं । किंतु इसके पूर्व वे निकाचित और अनिकाचित दोनों प्रकारके होते हैं। इन निकाचित और अनिकाचित प्रदेशाग्रोंकी भी चौबीस अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे प्ररूपणा करनी चाहिए । यहाँ उपशान्त, निधत्त और निकाचितके सन्निक का कथन करते हुए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र अप्रशस्त उपशामनारूपसे उपशान्त है वह न निधत्त न निकाचित है। जो निधत्त प्रदेशाग्र है वह न उपशान्त है और न निकाचित है । तथा जो निकाचित प्रदेशाग्र है वह न उपशान्त और न निधत्त है । आगे अधःप्रवृत्तसंक्रमके साथ इन तीनों अल्पबहुत्वका निर्देश करके यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है । २२ कर्म स्थिति- इस अनुयोगद्वारके विषय में दो उपदेशोंका निर्देश करके यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया हैं । पहला उपदेश नागहस्तिके मत के अनुसार निर्दिष्ट किया है और दूसरा उपदेश आर्यमक्षुके मतका निर्देश करता है । नागहस्तिक्षमाश्रमणका कहना है कि कर्मस्थिति अनुयोगद्वार में कर्मों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके प्रमाणका कथन किया जाता है और आर्यका कहना है कि इसमें कर्मस्थितिके भीतर सञ्चित हुए सत्कर्मकी प्ररूपणा की जाती है । २३ पश्चिमस्कन्ध - इस अनुयोगद्वार में तीन भवों में से भवग्रहणभवको प्रकृत बतला कर चरम भवमें जीवके सब कर्मोंकी बंत्रमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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