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________________ ( १३ ) सत्कर्ममार्गणा इन पाँच मार्गणाओंका विचार किया जाता है यह बतलाया गया है। इसके आगे जीव सिद्ध होता है उसकी अंतर्मुहर्त आयु शेष रह जाने पर तेरहवें गुणस्थानमें कर्मोकी और आत्मप्रदेशोंकी किस क्रमसे क्या क्या क्रिया होती है तथा चौदहवें गुणस्थानमें यह जीव किस रूपसे कितने काल तक अवस्थित रहकर कर्मोंसे मुक्त होकर सिद्ध होता है यह बतलाया गया है । इस प्रकार इन सब बातोंका विवेचन करने के बाद यह अनुयोगद्वार समाप्त किया गया है। २४ अल्पबहुत्व- इस अनुयोगद्वारके प्रारम्भमें यह सूचना की गई है कि नागहस्ति भट्टारक इसमें सत्कर्मका विचार करते हैं। वीरसेन स्वामीने इस उपदेशको प्रवृत्तमान बतला कर इसके अनसार सत्कर्म के प्रकतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म ये चार भेद करके सर्वप्रथम मल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा सत्कर्मका विचार किया है। उससे भी मूल प्रकृतियोंके स्वामित्वकी सूचना मात्र करके उत्तर प्रकृतियोंके स्वामित्वको विस्तारसे बतला कर एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और स्वामित्वको स्वामित्वके बलसे जान लेने की सूचना करके स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वोंमें से परस्थान अल्पबहुत्वका ओघसे और चारों गतियोंके साथ असंज्ञी मार्गणामें विचार किया है । भजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहाँ पर नहीं हैं, अत: इनके विषयमें इतनी मात्र सूचना देकर प्रकृतिस्थानसत्कर्मके विषयमे लिखा है कि मोहनीयका कषाय. प्राभृतके अनुसार जानना चाहिए और शेष कर्मोकी प्रकृतिस्थानप्ररूपणा सुगम है । ___ स्थितिसत्कर्मका विचार करते हुए मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्मका वर्णन सुगम कहकर उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अद्धाच्छेद तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्वका विस्तारसे विचार कर तथा एक जीवकी अपेक्षा काल आदि अनुयोगद्वारोंको स्वामित्वके बलसे जानने की सूचनामात्र करके अल्पबहत्व दिया गया है। यहाँ पर अद्धाच्छेदका विचार करते हुए ‘जट्टिदि' और 'जाओ द्विदीओ' ये शब्द आये हैं। प्राय: अनेक स्थानों पर 'जं ट्ठिदि' भी मुद्रित है। पर उससे 'जटिदि' का ही ग्रहण करना चाहिए। इन शब्दों द्वारा दो प्रकारकी स्थितियोंका निर्देश किया गया है । 'जटिदि ' शब्द 'यस्थिति' का द्योतक है और 'जाओ ट्रिदीओ' से स्थगित निषेकोंका परिमाण लिया गया है। उदाहरणस्वरूप पाँच निद्राओंकी उत्कृष्ट यतिस्थति पूरी तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाई है और निषेकोंके अनुसार स्थितियाँ एक समय कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण बतलाई हैं। अभिप्राय इतना है कि पाँच निद्राओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होते समय उदय नहीं होता, इसलिए पूरी स्थिति तीस कोडाकोडी सागर होकर भी उस समय सब निषेक एक कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होते हैं, क्योंकि, अनुदयवाली प्रकृतियोंका एक निषेक उदय समयके पूर्व स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप परिणत होता रहता है, इसलिए इनकी यत्स्थिति तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण होकर भी निषेकोंके अनुसार स्थिति एक समय कम होती है। यहाँ बन्धके समय आबाधा कालके भीतर प्राक्तनबद्ध कर्मोके निषेकका सत्त्व होनेसे एक समय कम तीस कोडाकोडी सागरप्रमाण निषेक बन जाते हैं इतना विशेष जानना चाहिए। यहाँ पर विशेष नियम इस प्रकार जानना चाहिए। १- जिन कर्मों का स्वोदयसे स्थितिबन्ध होता है उनकी यस्थिति और निषेकोंके परिमाणके अनुसार स्थिति समान होती है। बन्धोत्कृष्ट स्थितिके समान ही उनका दोनों प्रकारका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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