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________________ २- जिन कर्मोका परोदयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनकी उत्कृष्ट यस्थिति तो बन्धोत्कृष्ट स्थितिके ही समान होती है। मात्र निषेकोंके परिमाणके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म बन्धोत्कृष्ट स्थितिसे एक समय कम होता है । ३- जिन कर्मोका स्वोदयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है उनकी उत्कृष्ट यत्स्थितिसत्कर्म और निषकोंके परिमाणके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म तज्जातीय कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक आवलि कम होता है । मात्र सम्यक्त्वका उक्त दोनों प्रकारका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहुर्त कम जानना चाहिए, क्योंकि, मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्वरूपसे संक्रमण होता है। ४- जिन कर्मोंका परोदयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है उनकी उत्कृष्ट यस्थिति तज्जातीय कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक आवलि कम होती है और निषेकोंके परिमाणके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म तज्जातीय कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे एक समय अधिक एक आवलि कम होता है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्वका उक्त दोनों प्रकारका उत्कृष्ट सत्कर्म मिथ्यात्वके उत्कष्ट स्थितिबन्धसे अन्तर्महर्त कम जानना चाहिए । कारणका कथन स्पष्ट है। ५- चारों आयुओंका उत्कृष्ट आबाधा काल सहित उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट यत्स्थितिसत्कर्म होता है और अपने अपने निषेकोंके परिमाणके अनुसार निषेकगत उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है। __इसी प्रकार जघन्य स्थितिसत्कर्मके विषयमें भी अलग अलग प्रकृतियोंको ध्यान में रखकर नियम घटित कर लेने चाहिए। अनुभागसत्कर्मका विचार करते हुए पहले क्रमसे स्पर्धकप्ररूपणा, घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका प्ररूपणा करके जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्व और कुछ मार्गणाओंमें अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। अनुभागसत्कर्मके पश्चात् प्रदेशउदीरणाके आश्रयसे अल्पबहुत्व बतलाते हुए मूल और उत्तर प्रकृतियोंका आलम्बन लेकर वह बतलाया गया है । आगे उत्तरप्रकृतिसंक्रम, मोहनीय सम्बन्धी प्रकृतिस्थानसंक्रम, जघन्य स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके आश्रयसे प्रदेशसंक्रम और स्वतन्त्ररूपसे प्रदेशसंक्रमके अल्पबहुत्वका विचार करके प्रदेशसंक्रम अधिकारको पूर्ण किया गया है। इसके पश्चात् पहले कहे गये लेश्या, लेश्यापरिणाम, लेश्याकर्म, सात-असात, दीर्घह स्व, भवधारण, पुद्गलात्त, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित-अनिकाचित, कर्म स्थिति और पश्चिमस्कन्ध इन अनुयोगद्वारोंका पुनः पृथक्-पृथक् उल्लेख करके अलग अलग सूचनाएँ दी गई हैं। अन्तमें महावाचक क्षमाश्रमणके अभिप्रायानुसार अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके आश्रयसे सत्कर्मका विचार करते हुए उत्तरप्रकृतिसत्कर्म अल्पबहुत्वदण्डक, मोहनीय प्रकृतिस्थानसत्कर्म अल्पबहुत्व, उत्तरप्रकृतिस्थितिसत्कर्म अल्पबहुत्व, उत्तरप्रकृतिअनुभागसत्कर्म अल्पबहुत्व और उत्तरप्रकृतिप्रदेशसत्कर्म अल्पबहुत्व देकर अल्पबहुत्वके साथ चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त करनेके साथ धवला समाप्त होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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