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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४४७ विसे० | थी गिद्धीए विसे० । केवलदंसणावरणे विसे० । गिरयगई० अनंतगुणो । आहारसरीरे असंखे० गुणो । जसकित्ति० असंखे० गुणो । वेडव्वियसरीरे संखे ० गुणो । ओरालिय० विसे० । तेजा विसे० । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति ० संखे० गुणो । देवदिणामा० विसे० । तिरिक्खगई० विसे० । मणुस्सगई० विसे० । हस्से ० संखे० गुणो । रदी० विसे० । सादे संखे० गुणो । इत्थवेदे संखे ० गुणो । सो विसे० । अरदि० विसे० णवुंसयवेदे विसे० । दुगंछा० विसे० । भय० विसे० । पुरिसवेदे० विसे० । संजलणमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । दाणंतराइए विसे० । लाहंतराइए विसे० । भोगंतराइए विसे० 1 परिभोतराइए विसे । विरियंतराइए विसे० । मणपज्जवणाणावर गे विसे० । ओहिणाणा ० विसे० ० । सुदणाणा० विसे० । मदिणा० विसे० । ओहिदंसणाव० विसे० । अचक्खुदंस० विसे० । चक्खुदंस० विसे० । असादे संखे० गुणो । उच्चागोदे विमे० । णीचागोदे विसे । एवं असण्णी उक्कस्सओ पदेससंकमदंडओ समत्तो । जहासणीसु तहा एइंदिय-विगलदिए । है | स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरण में विशेष अधिक है । नरकगति में अनन्तगुणा है | आहारशरीरमें असंख्यातगुणा है । यशकीर्ति में असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है । औदारिकशरीर में विशेष अधिक है । तैजसशरीरमें विशेष अधिक है । कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है । अयशकीति में असंख्यातगुणा है । देवगति नामकर्म में विशेष अधिक है । तिर्यंचगति नामकर्म में विशेष अधिक है । मनुष्यगति नामकर्म में विशेष अधिक है । हास्य में संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीय में संख्यातगुणा है | स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है । नपुंसक वेद में विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है । पुरुषवेद में विशेष अधिक है । संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । क्रोध में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तराय में विशेष अधिक है । लाभान्तराय में विशेष अधिक है । भोगन्तराय में विशेष अधिक है । परिभोगन्तराय में विशेष अधिक है । वीर्यान्तराय में विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरण में विशेष अधिक 1 अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है । मतिज्ञानावरण में विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरण में विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीय में संख्यातगुणा है । उच्चगोत्र में विशेष अधिक है । नीचगोत्र में विशेष अधिक है । इस प्रकार असंज्ञी जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ । जैसे असंज्ञी जीवोंमें यह प्ररूपणा की गयी है वैसे ही एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों के विषय में भी जानना चाहिये । ★ अ-काप्रत्योः ' मणुस्सिणीसु ́, ताप्रती ' मणुसिणीसु ( असण्णीसु ) ' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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