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________________ ४४६ ) छक्खंडागमे संतकम्म संखे० गुणो । सोगे विसे० । अरदि० विसे० । णवंस० विसे । दुगुंछा० विसे० । भय० विसे० । पुरिस० विसे०। संजलणमाणे विसे । कोधे विसे०। मायाए विसे० । लोभे विसे० । दाणंतराइए विसे० । लाहंतराइए विसे० । भोगंतराइए विसे । परिभोगंतराइए विसे । विरयंतराइए विसे० । मणपज्जवणाणावरणे विसे० । ओहिणाणावरणे विसे० । सुदणा० विसे० । मदिणा० विसे० । ओहिदंसणावरणे विसे० । अचक्खुदंस० विसे० । चक्खुदंस० विसे० । असादे संखे० गुणो। उच्चागोदे विसे० । णीचागोदे विमेसाहिओ। एवं तिरिक्खगदीए उक्कस्सओ पदेससंकमदंडओ समत्तो। जहा तिरिवखगदीए तहा तिरिक्खजोणिणीसु । मणुस्सेसु मणुसिणीसु च मूलोघं । देवाणं देवीणं च णेरइयभंगो। असण्णीसु सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंकमो थोवो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो। अपचक्खाणमाणे असंखे० गुणो । कोधे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोधे विसे । मायाए विसे० । लोभे विसे० । अणंताणुबंधिमाणे विसे० । कोधे विसे० । मायाए विसें । लोभे विसे० । केवलणाणावरणे विसेसा० । पयलाए विसे० । णिद्दाए विसे० । पयलापयलाए विसे० । णिद्दाणिद्दाए अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्तराय में विशेष अधिक है। परिभोगान्तरायमें विशेष अधिक है। वीर्यान्त रायमें विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिज्ञानावरण में विशेष अधिक है। श्रुतज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें :विशेष अधिक है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। इस प्रकार तिर्यंचगतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। जैसे तिर्यंचगतिमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन किया गया है वैसे ही तिर्यंच योनिमतियोंमें भी समझना चाहिये। मनुष्यों और मनुष्यणियोंमें इस अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा मूलोधके समान है । देवों और देवियोंका यह प्ररूपणा नारकियोंके समान है। असंज्ञी जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृति में सबसे स्तोक है। सम्यग्मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। क्रोध में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभ में विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष अधिक है । क्रोध में विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है। लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है। निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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