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________________ ___ ४४८ ) छक्खंडागमे संतकम्म एतो ओघजहण्णपदेससंकमदंडओ कायव्वो । तं जहा- सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णओ पदेससंकमो । सम्मामिच्छत्ते असंखे० गुणो । मिच्छत्ते असंखे० गुणो । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणो। कोधे विसे । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पयलापयला० असंखे० गुणो। णिद्दाणिद्दाए विसे० । थोणगिद्धीए विसे० । अपच्चक्खाणमाणे असंखे० गुणो । कोधे विसे । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे०। कोधे विसे । मायाए विसे०। लोभे विसे । केवलणाणावरणे विसे। कुदो विसेसाहियत्तं? विज्झादभागहारादो चरिमसमयसुहमसांपराइयअधापवत्तभागहारस्स विसेसहीणत्तादो । ण च अधापवत्तभागहारो अवढिदो, एदम्हादो चेव तदणवट्ठिदत्तावगमादो । ण च पुग्विल्लभागहारप्पाबहुएण सह विरोहो, सव्वजहण्णभागहारे पडुच्च तदुप्पत्तीदो। _पयलाए विसे० पयडिविसेसेण । णिद्दाए विसे० । केवलदंस० विसे० । णिरयगइणामाए अणंतगुणो । देवगइणामाए असंखे० गुणो । वेउब्वियसरीर० संखे० गुणो। आहारसरीर० असंखे० गुणो। मणुसगइ० संखे० गुणो। उच्चागोदे संखे० गुणो। तिरिक्खगइ असंखे० गुणो । कुदो? उज्वेल्लणभागहारादो तेवद्विसागरोवमसदण्णोण्ण अब यहां ओघ जघन्य प्रदेशसंक्रमदण्डक करते हैं । वह इस प्रकार है- जघन्य प्रदेशसंक्रम सम्यक्त्व प्रकृतिमें सबसे स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वभे असंख्यात गुणा है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है । अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें असंख्यातगुणा है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण मानम असंख्यातगुणा है । क्रोधमें विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। क्रोधमें विशेष अधिक है । मायाम विशेष अधिक है । लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है । शंका- उसमें विशेष अधिक क्यों है ? समाधान- इसका कारण यह है कि विध्यातभागहारकी अपेक्षा अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका अधःप्रवृत्तभागहार विशेष हीन है । और यह अधःप्रवृत्तभागहार कुछ अवस्थित नहीं है, क्योंकि, इसीसे उसको अनवस्थिता जानी जाती है । पूर्वोक्त भागहारके अल्पबहुत्वके साथ इसका विरोध होगा, यह भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उसकी उत्पत्ति सबसे जघन्य भागहारके आश्रित है। केवलज्ञानावरणकी अपेक्षा वह प्रचलामें प्रकृतिविशेषसे विशेष अधिक है । निद्राम विशेष अधिक है । केवलदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । नरकगति नामकर्ममें अनन्तगुणा है। देवगति नामकर्ममें असंख्यातगुणा है । वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । मनुष्यगति नामकर्ममें संख्यातगुणा है । उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । तिर्यंचगति नामकर्ममें असंख्यातगृणा है, क्योंकि, उद्वेलनभागहारकी अपेक्षा एक सौ तिरेसठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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