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________________ सादासादाणुयोगद्दारे पदेसग्गपमाणानुगमो (५०१ तिस्से पढमसादबंधगद्धाए चरिमसमए जहण्णयमणेयंत असादं । एवं अभवसिद्धियपाओग्गे सामित्तं गदं । भवसिद्धियपाओगे एयंतसादमुक्कस्सयं कस्स ? जो सत्तमादो पुढवीदो सव्वलहु मणुसगइमागदो, सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्ठिदो, चरिमसमयभवसिद्धियो वि संतो सादवेदगो होहिदि, तस्स चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स उक्कस्सयमेयंतसादं । उक्कस्यमेयंत मसादं कस्स ? एरिसयस्सेव चरिमभवमणुस्सस्स चरिमे असादबंधे च चरिमसमयअसादबंधयस्स । सो च पुण चरिमसमयभवसिद्धियद्वाणे असादवेदओ होदि । उक्कस्सयमणेयंतं सादं कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धियस्स सादवेदयस्स । उक्कस्सयमणेयंतं असादं कस्स ? गुणिदकम्भंसियस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स असादवेदयस्स । जहणियाणि सामित्ताणि जहा अभवसिद्धियस्स तारिसाणि चेव । एवं सामित्तं गदं । पदेसग्गस्स पमाणाणुगमो - अभवसिद्धियस्स उक्कस्सं पि एयंतसादं एयंतअसादं वा समयपबद्धस्स असंखेज्जपलिदोवमवग्गमूलभागो । भवसिद्धियस्स उक्कस्सयमेयंतसादं एयंत असादं च समयपबद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता, जवमज्झसमयपबद्धा च अवहारकालमेत्ता । एवं पमाणपरूवणा गदा । अन्तिम समयमें जघन्य अनेकान्तअसात होता है । इस प्रकार अभव्यसिद्धिक प्रायोग्यके आश्रयसे स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ । भव्य सिद्धि प्रायोग्यके आश्रयसे उत्कृष्ट एकान्तसात किसके होता है ? जो सातवीं पृथिवी से सर्वलघु कालमें मनुष्यगति में आकर और सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होकर अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक भी होता हुआ सातवेदक होगा उस अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके उत्कृष्ट एकान्तसात होता है । उत्कृष्ट एकान्तअसात किसके होता है ? वह ऐसे ही अन्तिम भववाले ( चरमशरीरी ) मनुष्य के अन्तिम असातबन्ध में अन्तिम समयवर्ती असातबन्धक होनेपर होता है । वह भी अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक स्थानमें असातवेदक होता है । उत्कृष्ट अनेकान्तसात किसके होता है ? वह सातवेदक अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके होता है । उत्कृष्ट अनेकान्तसात किसके होता है ? वह गुणितकर्माशिक अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक असातवेदकके होता है । जघन्य स्वामित्व जैसे अभव्यसिद्धिकके कहे गये हैं वैसे ही भव्यसिद्धि भी हैं । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । प्रदेशाग्र के प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा की जाती है - अभव्यसिद्धिकका उत्कृष्ट एकान्तसात और एकान्तअसात समयप्रबद्ध के असंख्यात पल्योनम वर्गमूल प्रमाण है । भव्यसिद्धिक के उत्कृष्ट एकान्तसात और एकान्तअसात समयप्रबद्ध अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं । यवमध्यसमयप्रबद्ध अवहारकाल मात्र हैं | प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई । D ताप्रतौ ' जहण्णयावि (णि) इति पाठः । ४ तातो एयंत असादं' इति पाठः । Jain Education International ताप्रतौ ' पदेसस्स ' इति पाठ: । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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