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________________ ५०२ ) छक्खंडागमे संतकम्मं तो अभवसिद्धियपाओगे अप्पा बहुअं कायव्वं । तं जहा- सव्वत्थोव मुक्कस्स यमेयत्तं सादं । एयंतं असादं असंखेज्जगुणं ( अणेयंतं सादं असंखेज्जगुणं ) अणेयंत असादं असंखे० गुणं । freeगई तिरिक्खे तिरिक्खणीसु मणुस्सेसु मणुस्सिणीसु देवेसु देवीसु च एइंदिय-बीइंदिय-तीइं दिय- चउरिदिए उक्कस्सअप्पा बहुअस्स ओघभंगो । सव्वत्थोवं जहण्णयमेयंतसादं । एयंत असादमसंखेज्जगुणं । अणेयंतसादं असंखे० गुणं । अणेयंत असादं संखे० गुणं । सव्वासु गदीसु सव्वेसु एइंदिएसुQ ओघभंगो । एवमभवसिद्धियपाओगे अप्पा बहुअं समत्तं । भवसिद्धियपाओगे उक्कस्सए अप्पाबहुअं । तं जहा - सव्वत्थोवमुक्कस्सगं एतसादं । एयंत असादं संखेज्जगुणं । अणेयंतअसादं असंखे० गुणं । अणेयंतसादं विसेसाहियं । रिगईए उक्कस्सयमेयंतसादं योगं । एयंत असादं संखेज्जगुणं । अणेांतसादमसंखे० गुणं । अणेयंत असादं ( अ ) संखे० गुणं । मणुसगइवज्जासु * सव्वासु गदीसु एइदिएसु च णिरयगइभंगो । मणुस्सेसु मणुसिणीसु ओघभंगो । जहाअभवसिद्धियपाओगे जहण्णां तहा भवसिद्धियपाओग्गे वि जहण्णां कायव्यं । यहां अभव्यसिद्धिकप्रायोग्यके आश्रयसे अल्पबहुत्व करते हैं । यथा- उत्कृष्ट एकान्तसात सबसे स्तोक है । एकान्तअसात उससे असंख्यातगुणा है । अनेकान्त सात असंख्यातगुणा है । अनेकान्त असात असंख्यातगुणा है । नरकगतिमें, तिर्यंचोंमें, तिर्यंचनियोंमें, मनुष्यों में, मनुष्यनियोंमें, देवोंमें, देवियोंमें, तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान है । जघन्य एकान्तसात सबसे स्तोक है । एकान्तअसात उससे असंख्यातगुणा है । अनेकान्तसात असंख्यातगुणा है । अनेकान्तअसात संख्यातगुणा है । सब गतियों और सब एकेन्द्रियों में जघन्य अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ओघके समान हैं । इस प्रकार अभव्यसिद्धिक प्रायोग्यके आश्रित अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । भव्यसिद्धिकप्रायोग्यके आश्रयसे अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । वह इस प्रकार हैउत्कृष्ट एकान्तसात सबसे स्तोक है। एकान्तअसात संख्यातगुणा 1 अनेकांतअसात असंख्यातगुणा है । अनेकान्तसात विशेष अधिक है । नरकगति में उत्कृष्ट एकान्तसात सबसे स्तोक है । एकान्तअसात संख्यातगुणा है । अनेकान्तसात असंख्यातगुणा है । अनेकान्तअसात असंख्यातगुणा है । मनुष्यगतिको छोडकर शेष सब गतियोंमें और एकेन्द्रियोंमें नरकगतिके समान प्ररूपणा है। मनुष्यों और मनुष्यनियोंमें ओघके समान प्ररूपणा है । जधन्य अल्पबहुत्व जैसे अभव्यसिद्धिकप्रायोग्यके विषय में किया गया है वैसे ही भव्यसिद्धिक प्रायोग्यके विषय में भी करना चाहिये । अ-काप्रत्यो ' मणुस गईए ' इति पाठ: । तातो' सव्वेसु इदिएसु ' इति पाठ: । अप्रती 'तम्हा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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