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________________ ३९२ ) छक्खंडागमे संतकम्म लोगा । एवमुच्चागोदस्स वि। सेसाणं णामपयडीणं णीचागोद-तिरिक्खाउअ-मिच्छत्तअट्ठकसाय-सादासाद-णिवाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं जहण्णाणुभागसंकामयाण णत्थि अंतरं । एवमंतरं समत्तं । सण्णियासो। तं जहा-मदिआवरणस्स उक्कस्साणुभागसंकामगो सुदावरणस्स । तं तु छट्ठाणपदिदा* । एवं जाणिदूण यव्वं । जहण्णसण्णियासो। तं जहा-मदिआवरणस्स जो जहण्णाणुभागसंकामगो सेसाणं चदुण्णं णाणावरणीयाणं णियमा जहण्णाणुभागस्स संकामओ, दंसणावरणस्स चउव्विहस्स णियमा जहण्णाणुभागसंकामगो, णिहा-पयलाणं णियमा असंकामओ, पंचण्णमंतराइयाणं णियमा जहण्णा, सेसाणं जेसि संतकम्ममत्थि तेसि णियमा अजहण्णसंकामओ । एवं सण्णियासो समत्तो। एत्तो अप्पाबहुगं दुविहं सत्थाणे परत्थाणे चेदि । चउसद्विवदियो जो दंडओ तेण पयदं । सो दुविहो उक्कस्सपदे जहण्णपदे चेदि । उक्कस्सेण जहा अणुभागबंध भणिदो तहा उक्कस्सए अणुभागसंकमे कायन्वो । णवरि सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्ते है। इसी प्रकार उच्चगोत्रकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। शेष नामप्रकृतियों, नीचगोत्र, तिर्यगायु, मिथ्यात्व, आठ कषाय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिके जघन्य अनुभाग संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। इस प्रकार अन्तरकालकी प्ररूपणा समाप्त हुई। संनिकर्षकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- मतिज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक श्रुतज्ञातावरणके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । वह षट्स्थानपतित होता है। इस प्रकार जानकर आगे भी ले जाना चाहिये। जघन्य अनुभाग संक्रामकके संनिकर्षकी प्ररूपणा इस प्रकार है- जो मतिज्ञानावरण के जघन्य अनुभागका संक्रामक है वह नियमसे शेष चार ज्ञानावरण प्रकृतियों के जघन्य अनुभाभागका संक्रामक होता है, वह चार प्रकार दर्शनावरणके नियमसे जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है, निद्रा और प्रचलाका नियमसे असंक्रामक होता है, वह पांच अन्तराय प्रकृतियोंके नियमसे जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है, शेष प्रकृतियोंमें जिनका सत्त्व है उनके नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। इस प्रकार संनिकर्षकी प्ररूपणा समाप्त हुई। यहां स्वस्थान और परस्थानके भेदसे अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। चौंसठ पदवाला जो अल्पबहुत्वदण्डक है वह यहां प्रकृत है । वह दो प्रकारका है- उत्कृष्ट पद विषयक और जघन्य पद विषयक । उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा जैसे अनुभागबन्धके विषयमें उक्त अल्पबहुत्वदण्डकका कथन किया गया है वैसे ही उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके विषयमें भी उसका कथन करना चाहिये। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वमें 'अनन्तगुणहीन' * ताप्रती ' छट्ठाणं पदिदा' इति पाठः । . ४ प्रतिषु 'अण भागसंकमो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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