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________________ ५०८ ) छक्खंडागमे संतकम्म दुचरिमादिसमएसु दोपयडिसंतस्स दीहत्तुवलंभादो । मोहणीयस्स संतं पडुच्च अट्ठावीसपयडीयो पयडिदीहं, तणं णोपयडिदीहं । बंधं पडुच्च : बावीस पयडीयो बंधमाणस्स पयडिदीहं, तदूणं बंधमाणस्स णोपयडिदीहं । उदयं पडुच्च दस पयडीयो पयडिदीहं, तदूणं णोपयडिदीहं। आउअस्स बंधोदयं पडुच्च णत्थि पयडिदीहं संतं पडुच्च अत्थि, परभवियाउए बद्धे दोण्णं पयडोणं संतसगादो । णामस्त एक्कतोसपयडीओ बंधोदयं पडुच्च पयडिदीहं, नदूणं णोपयडिदीहं । संतं पडुच्च तिणउदिपयडीओ पयडिदीहं, तणं णोपयडिदीहं। गोदस्स बंधोदयं पडुच्च पत्थि पयडिदीहं । संतं पडुच्च अस्थि, अजोगिचरिमसमए पयडिसंतं पेक्खिदूण दुचरिमादिसमयसंतस्स दीहत्तुवलंभादो। एवं पयडिदीहं समत्तं । ठिदिदीहं दुविहं मूलपयडिटिदिदीहं उत्तरपयडिदिदिदीहं चेदि । तत्थ मूलपयडिटिदिदीहं वुच्चदे । तं जहा-- णाणाव ण-दसणावरण-वेयणीय-अंतराइयाणं तीसंसागरोवमकोडाकोडीयो बंधमाणस्स डिदिदीहं, तदूणं बंधमाणस णोद्विदिदीहं । मोहणीयस्स सत्तारिसागरोवमकोडाकोडीयो बंधमाणस्स डिदिदीहं, तणं बंधमाणस्म णोटिदिदीहं । आउअस्स तेत्तीसंसागरोवमाणि बंधमाणस्स टिदिदीहं, तदूणं बंधमाणस्स उसीके द्विचरम-त्रिचरम आदि समयोंमें वेदनीयकी दो प्रकृतियोंके सत्त्वकी दीर्घता पायी जाती है । मोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमकी सत्तावालेके नोप्रकृतिदीर्घ है । बन्धकी अपेक्षा बाईस प्रकृतियोंको बांधनेवालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमको बांधनेवालेके नोप्रकृतिदीर्घ है। उदकी अपेक्षा दस प्रकृतियोंके उदयवालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे उदयवालेके नोप्रकृतिदीघे है। आयु कर्मके बन्ध और उदयकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ नहीं है । किन्तु सत्त्वकी अपेक्षा है, क्योंकि, परभविक आयुका बन्ध होनेपर दो आयु प्रकृतियोंका सत्त्व देखा जाता है । नामकर्मकी इकतीस प्रकृतीयोंके बन्ध और उदयकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमका बन्ध व उदय होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ है । सत्त्वकी अपेक्षा तेरानबै प्रकृतियोंकी सत्तावालेके प्रकृतिदीर्घ है, उनसे कमकी सत्तावालेके नोप्रकृतिदीर्घ है । गोत्रके बन्ध और उदयकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ नहीं है । किन्तु सत्त्वकी अपेक्षा उसके प्रकृतिदीर्घ है, क्योंकि, अयोगकेवली के अन्तिम समय सम्बन्धी प्रकृतिसत्त्वकी अपेक्षा करके द्विचरम आदि समय सम्बन्धी सत्त्वके दीर्घता पायी जाती है। इस प्रकार प्रकृतिदीर्घ समाप्त हुआ । स्थितिदीर्घ दो प्रकारका है- मूलप्रकृतिस्थितिदीर्घ और उत्तरप्रकृतिस्थितिदीर्घ । उनमें मूलप्रकृतिस्थितिदीर्घकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय; इनकी तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थितिको बांधनेवाले के स्थितिदीर्घ है, उससे कम स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिदीर्घ है। मोहनीयकी सत्तर कीडाकोडि सागरोपम स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिदीर्घ है, उससे कम बांधनेवालेके नोस्थितिदीर्घ है। आयुको तेतीस सागरोपम स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिदीर्घ है, उससे कम स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिदीर्घ है । नाम व गोत्रकी * अप्रतो 'आउअस्स बंधोदयं पडुच्च' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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