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________________ दीह-रहस्साणुयोगद्दारे पयडिरहस्सं ( ५०९ णोदिदिदीहं । णामा-गोदाणं बीसंसागरोवमकोडाकोडीयो बंधमाणस्स द्विदिदीहं, तणं बंधमाणस्स गोटिदिदीहं । एवमुत्तरपयडीणं पि जाणिदूण डिदिदीहपरूवणा कायव्वा । . अप्पप्पणो उक्कस्समाणुभागट्टाणाणि बंधमाणस्स अणुभागदीहं, तदूणं बंधमाणस्स णोअणुभागदीहं । सव्वासि पयडीणं सग-सगपाओग्गउक्कस्सपदेसे बंधमाणस्स पदेसदीहं, तदूणं बंधमाणस्स णोपदेसदीहं । एवं दोहं ति समत्तं । ___ रहस्से पयदं -- तं चउन्विहं पयडिरहस्सं टिदिरहस्सं अणुभागरहस्सं पसिरहस्सं चेदि । तत्थि पडिरहस्सं दुविहं मूलपयडिरहस्सं उत्तरपयडिरहस्सं चेदि ।भूलपयडिरहस्सं दुविहं पयडिट्ठाणरहस्सं एगेगपयडिरहस्सं चेदि । पयडिट्ठाणे अत्थि रहस्सं । तं जह-- एगेगपडि बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोपयडिरहस्सं । संतं पडुच्च चत्तारिसंतकम्मिस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि णोपयडिरहस्सं । एगेगपयडिरहस्सं पत्थि। उत्तरपयडीसु पयदं- पंचणाणावरण-पंचंतराइयाणं णत्थि पयडिरहस्सं । दसणावरणीए चत्तारि पयडीयो बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोपयडिरहस्सां । मोहणीए एयं बंधमाणस्स पयडिरहस्सां तदुवरि णोपयडिरहस् । आउअस्स बंां पडुच्च पयडिरहस्सं णत्यि, दोण्णमाउआगमक्कमेण बंधाभावादो। संतं पडुच्च अत्थि पयडिरहस्सं, अबद्ध परभवियाउअम्मि एक्कस्स चेव आउअस्स उवलंभादो । बीस कोडाकोडि सागरोपम स्थितिको बांधनेवालेके स्थिति दीर्घ है, उससे कम बांधनेवाले के नोस्थितिदीर्घ है । इसी प्रकार उत्तर प्रकृतियोंके भी स्थितिदीर्घकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये। अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्थानोंको बांधनेवालेके अनुभागदीर्घ है, उनसे कम बांधनेवालेके नोअनुभागदीर्ध है । सब प्रकृतियोंके अपने अपने योग्य प्रदेशोंको बांधनेवालेके प्रदेशदीर्घ है, उससे कम बांधनेवालेके नोप्रदेशदीर्घ है । इस प्रकार दीर्घका कथन समाप्त हुआ । ह,स्वका प्रकरण है- वह प्रकृतिह स्व, स्थितिह स्व, अनुभागह स्व और प्रदेशह स्वके भेदसे चार प्रकारका है। उन में प्रकृतिह स्व दो प्रकारका है- मूलप्रकृतिह स्व और उत्तरप्रकृतिह स्व । मूलप्रकृतिह स्व दो प्रकारका है- प्रकृतिस्थानह स्व और एक-एकप्रकृतिह,म्व । प्रकृतिस्थान में ह,स्व है । यथा- एक एक प्रकृतिको बांधनेवाले के प्रकृतिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । सत्त्वकी अपेक्षा चार कर्मों की सत्तावालेके प्रकृतिह,स्व है, उनसे अधिक प्रकृतियोंकी सत्तावालेके नोप्रकृतिह स्व है । एक-एकप्रकृतिह स्व नहीं है। उत्तर प्रकृतियोंका प्रकरण है- पांच ज्ञानावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके प्रकृतिह स्व नहीं है । दर्शनावरणकी चार प्रकृतियोंको बांधनेवाले के प्रकृतिह स्व है, उनसे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है। मोहनीयकी एक प्रकृतिको बांधनेवालेके प्रकृतिह स्व है, अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । आयुके बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्व नहीं है, क्योंकि, आयुकी दो प्रकृतियोंका युगपत् बन्ध संभव नहीं है । सत्त्वकी अपेक्षा प्रकृतिह, स्व संभव है, क्योंकि, ४ ताप्रतौ 'पदेस' इति पाठः। 8 अ-काप्रत्योः ‘पयं' इति पाठः। * ताप्रती 'बद्ध-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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