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________________ ५१० ) छक्खंडागमे संतकम्म णामस्स जसकित्ति बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि णोपयडिरहस्सं । गोद-वेयणीयाणं बंध पडुच्च णत्थि पयडिरहस्सं, उच्च-णीचागोदाणं सादासादवेदणीयाणं च अक्कमेण बंधाभावादो । एवं पयडिरहस्सं गदं । द्विदिरहस्सं दुविहं मूलपयडिटिदिरहस्सं उत्तरपयडिटिदिरहस्सं चेदि । तत्थ मूलपयडिटिदिरहस्से च पयदं- णाणावरणीय-दसणावरणीय-मोहणीय-आउअ-अंतराइयाणं अंतोमुहुत्तट्ठिदि बंधमाणस्स ट्ठिदिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोटिदिरहस्सं । वेदणीयस्स बारसमुहत्तं टिदि बंधमाणस्स टिदिरहस्सं, तदुवरि णोट्ठिदिरहस्सं । णामा-गोदाणमट्टमहत्तं टिदि बंधमाणस्स टिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । संत पडुच्च सव्वासि पयडीणमेयट्ठिदिसंतकम्मस्स ट्ठिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । उत्तरपयडीसु पयडं- बंधं पडुच्च द्विदिरहस्से भण्णमाणे जहा जीवट्ठाणचूलियाए उत्तरपयडीणं जहण्णट्ठिदिपरूवणा कदा तहा कायव्वा । संपदि संतं पडुच्च वुच्चदे । तं जहा-पंचणाणावरणीय- णवदसणावरणीय--सादासाद-सम्मत्त- मिच्छत्त-सम्मा परभविक आयुके बन्धसे रहित जीवके एक ही आयुका सत्त्व पाया जाता है। नामकर्मकी यशकीर्तिको बाधनेवालेके प्रकृतिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । गोत्र और वेदनीय कर्मोके बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्व नहीं है, क्योंकि, उच्च व नीच गोत्रोंका तथा साता व असाता वेदनीयोंका युगपत् बन्ध सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रकृतिह स्व समाप्त हुआ। स्थितिह स्व दो प्रकारका है-- मूलप्रकृतिस्थितिह म्य और उत्तरप्रकृतिस्थितिह, स्व . इनमें मूलप्रकृतिस्थितिह, स्वका प्रकरण है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयु और अन्तरायकी अन्तर्मुहर्त स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है; इससे अधिक स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है। वेदनीयकी बारह मुहूर्त मात्र स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है, उससे अधिक स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है । नाम और गोत्रकी आठ मुहुर्त मात्र स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है। सत्त्वकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंके एक स्थितिसत्कर्म सहितक स्थिति-हस्व है, उससे अधिक सत्कर्मवालेके नोस्थितिह, स्व है। उत्तर प्रकृतियोंका प्रकरण है- बन्धकी अपेक्षा स्थितिह स्वका कथन करने पर जैसे जीवस्थानकी चूलिकामें उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका कथन किया गया है वैसे ही यहां उसका कथन करना चाहिये । अब सत्त्वकी अपेक्षा स्थितिह, स्वका कथन करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, तेरह कषाय, ४ ताप्रती ' रहस्सेह च ' इति पाठः । 0 प्रतिषु 'सतकम्मं से सट्ठिदिरहस्सं ' इति पाठः । प्रतिष 'तं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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