SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ दीह-रहस्साणुयोगद्दारं संभवमरणविवज्जियमहिवंदिय संभवं पयत्तेण । दीह-रहस्सणुयोगं वोच्छमि जहाणुपुवीए ॥ १॥ दीह-रहस्से ति अणुयोगद्दारं भण्णमाणे तत्थ दीहं चउव्विहं पडिदीहं ठिदिदीहं अणुभागदीहं पदेसदीहं चेदि । तत्थ पयडिदीहं दुविहं मूलपयडिदीहं उत्तरपयडिदीहं चेदि । तत्थ भूलपयडिदीहं दुविहं पयडिट्ठाणदीहं एगेगपयडिट्ठाणदीहं चेदि । तत्थ पयडिट्ठाणं पडुच्च अस्थि दीहं। तं जहा- अट्ठसु पयडीसु बज्झमाणियासु पयडिदीहं, तदूणासु बज्झमाणियासु णोपयडिदीहं। संतं पडुच्च अट्ठसु पयडीसु संतासु पयडिदीहं, .तदूणासु णोपयडिदीहं। उदयं पडुच्च अट्टसु पयडीसु उदिण्णासु पयडिदीहं, तदूणासु णोपयडिदीहं । एगेगपडि पडुच्च णत्थि पयडिदीहं । उत्तरपयडीसु पंचणाणावरणीय-पंचंतराइयाणं णत्थि पयडिदीहं। दंसणावरणीयस्स णव पयडीओ बंधमाणस्स अस्थि पयडिदीहं, तद्रूणं बंधमाणस्स णत्थि पयडिदोहं। एवं संतोदयमस्सिदूण वि वत्तव्वं । वेयणीयस्स बंधोदयमस्सिदूण पत्थि पयडिदीहं । संतं पडुच्च अत्थि, अजोगिचरिमसमए एयपयडिसंतं पेक्खिदूण तस्सेव जन्म और मरणसे रहित ऐसे सम्भव जिनेन्द्र की वन्दना करके प्रयत्नपूर्वक आनुपूर्वीके अनुसार दीर्घ-ह स्वानुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ दीर्घ-ह स्वानुयोगद्वारका कथन करने में वहां दीर्घ चार प्रकारका है- प्रकृतिदीघं, स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ । उनमें प्रकृतिदीर्घके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिदीर्घ और उत्तरप्रकृतिदीर्घ । इनमें मूलप्रकृतिदीर्घ दो प्रकारका है- प्रकृतिस्थानदीर्घ और एक-एकप्रकृतिस्थानदीर्घ। उनमें प्रकृतिस्थानकी अपेक्षा दीर्घ सम्भव है। वह इस प्रकारसे- आठ प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कमका बन्ध होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । सत्त्वकी अपेक्षा आठ प्रकृतियोंके सत्त्वके होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कमका सत्त्व होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। उदयकी अपेक्षा आठ प्रकृतियोंके उदीर्ण होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कमके उदीर्ण होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। एक एक प्रकृतिकी अपेक्षा प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है । उत्तर प्रकृतियोंमें पांच ज्ञानावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंमें प्रकृतिदीर्घ सम्भव नहीं है। दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियोंको बांधनेवालेके प्रकृति दीर्घ है, उनसे कम बांधनेवालेके प्रकृतिदीर्घ नहीं है । इसी प्रकारसे इनके सत्त्व और उदयका आश्रय करके भी कथन करना चाहिये । वेदनीयके बन्ध और उदयका आश्रय करके प्रकृतिदीर्घ नहीं है। सत्त्वकी अपेक्षा उसकी सम्भावना है, क्योंकि, अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें एक प्रकृतिके सत्त्वकी अपेक्षा ताप्रती 'पत्तएण' इति पाठः। ताप्रतौ ' तत्थमपडिद्धाणं अत्थि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy