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________________ ( ५ ) आवलिसे अधिक सत्कर्म विद्यमान हैं ऐसा जीव इनका संक्रामक होता है। यशःकीर्तिका संक्रामक तब तक होता है जब तक पर भवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंका बन्ध करता है। उच्चगोत्रका संक्रामक नीचगोत्रका बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव होता है। मात्र एक आवलिसे अधिक सत्कर्मके रहते हुए उच्चगोत्रका संक्रामक होता है। नीचगोत्रका संक्रामक उच्चगोत्रका बन्धा करनेवाला अन्यतर जीव होता है। इस प्रकार सब प्रकृतियोंके स्वामित्वको जान कर काल आदि अनुयोगद्वारोंका विचार कर लेना चाहिए । मूलमें इनका विचार किया ही है, इसलिए विस्तार भयसे यहाँ उनका अलग अलग निर्देश नहीं करते हैं। इस प्रकार प्रकृतिसंक्रमका विचार कर आगे प्रकृतिस्थानसंक्रमकी सूचना करते हुए . बतलाया गया है कि ज्ञानावरणीय, वेदनीय, गोत्र और अन्तरायका एक एक ही संक्रमस्थान है। दर्शनावरणके नौ प्रकृतिक और छह प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान हैं। मोहनीयके संक्रमस्थानोंका विचार कषायप्राभूतमें विस्तारके साथ किया है। नामकर्मकी पिण्डप्रकृतियोंके आश्रयसे स्थानसमुत्कीर्तना करनी चाहिए । इस प्रकार अलग अलग प्रकृतियोंके संक्रमस्थान जानकर उनके आश्रयसे स्वामित्व और काल आदि सब अनुयोगद्वारोंका विचार करनेकी सूचना करके यह प्रकरण समाप्त किया गया है। आगे स्थितिसंक्रमका निर्देश करके उसकी प्ररूपणा इस प्रकार की है। स्थितिसंक्रम दो प्रकारका है-- मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम। स्थितिसंक्रम तीन प्रकारसे होता है। यथा-- स्थितिका अपकर्षण होने पर स्थितिसंक्रम होता है, स्थितिका उत्कर्षण होने पर स्थितिसंक्रम होता है और स्थितिके अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराने पर भी स्थितिसंक्रम होता है। अपकर्षण की अपेक्षा संक्षेपमें स्थितिसंक्रमका विचार इस प्रकार है-- उदयावलिके भीतरकी सब स्थितियोंका अपकर्षण नहीं होता। उदयावलिके बाहर जो एक समय अधिक उदयावलिप्रमाण स्थिति है उसका अपकर्षण होता है। अपकर्षण होकर उसका एक समय कम आवलिके दो बटे तीन भागप्रमाण स्थितिको अतिस्थापनारूपसे रखकर एक अधिक तृतीय भागमें निक्षेप होता है। इससे आगेकी स्थितियोंका अपकर्षण होने पर एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना प्राप्त होने तक उसकी वृद्धि होती है और निक्षेप उतना ही रहता है। इससे आगे अतिस्थापना अवस्थितरूपसे एक आवलिप्रमाण ही रहती है और निक्षेप उत्तरोत्तर बढता जाता है। उत्कर्षणके विषयमें यह नियम है कि उदयावलिके भीतरकी सब स्थितियोंका उत्कर्षण नहीं होता। एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिका उत्कर्षण होता है। किन्तु उसका नहीं बँधनेवाली स्थितिमे निक्षेप न होकर बँधनेवाली जघन्य स्थितिसे लेकर ऊपरकी सब स्थितियोंमें निक्षेप होता है। यह विधि उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाली नीचेकी स्थितियोंकी कही है। ऊपरकी स्थितियोंका उत्कर्षण किस प्रकार होता है इसका विगर करने पर यदि यह जीव सत्कर्मसे एक समय अधिक स्थितिका बन्ध करता है तो पूर्वबद्ध कर्मकी अन्तिम स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि, यहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव है। पूर्वबद्ध कर्मकी द्विचरम स्थितिका भी उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि, यहाँ पर भी अतिस्थापना और निक्षेप सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्मकी एक आवलि और एक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिके नीचे जाने तक जितने भी स्थितिविकल्प हैं उनका उत्कर्षण सम्भव नहीं। कारण वही है। हाँ उससे नीचे एक स्थितिके जाने पर जो स्थितिविकल्प स्थित है उसका उत्कर्षण हो सकता है और वैसी अवस्थामें एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है तथा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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