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प्रादुर्भाव होना कालसंक्रम है । लोकमें हेमन्त ऋतु या ग्रीष्म ऋतु संक्रान्त हुई ऐसा व्यवहार भी देखा जाता है । यहाँ विवक्षित क्षेत्र और विवक्षित कालमें स्थित द्रव्यको क्षेत्र और काल संज्ञा रख कर भी क्षेत्रसंक्रम और कालसंक्रम घटित कर लेना चाहिए, ऐसा वीरसेनस्वामीने सूचित किया है।
इस प्रकार संक्षेपसे छह निक्षेपोंका विचार करनेके पश्चात् विवक्षित अनुयोगद्वारमें कर्मसंक्रमको प्रकृत बतलाकर उसके चार भेद किये हैं-प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुमागसंक्रम
और प्रदेशसंक्रम । एक प्रकृतिका अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रान्त होना यह प्रकृतिसंक्रम है । इस विषयमें विशेष नियम ये हैं । यथा-किसी भी मूलप्रकृतिका अन्य मूलप्रकृतिरूपसे संक्रमण नहीं होता । उदाहरणार्थ, ज्ञानावरणका दर्शनावरण रूपसे संक्रमण नहीं होता। इसीप्रकार अन्य मूल प्रकृतियोंके विषयमें भी जानना चाहिये। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जिस मूल कर्मकी जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं उनमें परस्पर संक्रमण होता है। उदाहरणार्थ, ज्ञानावरणकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं, इसलिए उनका परस्परमें संक्रमण होता है। इसी प्रकार अन्य मूल प्रकृतियोंमसे जिसकी जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हों उनके परस्पर संक्रमणके विषयमें यह नियम जानना चाहिये । मात्र दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें संक्रमण नहीं होता तथा चार आयुओंका भी परस्पर संक्रमण नही होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
भागहारकी दृष्टिसे संक्रमके पाँच भेद हैं-अधप्रवृत्तसंक्रम, विध्यातसंक्रम, उद्वेलनासंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम । इनमें से प्रकृतमें इन अवान्तर भेदोंकी दृष्टिसे संक्रमका विचार न करके वीरसेन स्वामीने बन्धके समय होनेवाले इस संक्रमका स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर उत्तरप्रकृतिसंक्रगका विचार किया है।
स्वामित्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि पाँच ज्ञानवरण, नौ दर्शनावरण, बारह कषाय और पाँच अन्तरायका अन्यतर सकषाय जीव संक्रमक होता है । असाताका बन्ध करनेवाला जीव साताका संक्रामक होता है और साताका बन्ध करनेवाला सकषाय जीव असाताका संक्रामक होता है । दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका परस्पर संक्रम नहीं होता यह तो स्पष्ट ही है । दर्शनमोहनीयका संक्रमके विषयमें यह नियम है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका संक्रामक नहीं होता । सम्यक्त्वका मिथ्यादृष्टि जीव संक्रामक होता है। मात्र सम्यक्त्वका एक आवलि प्रमाण सत्कर्म शेष रहने पर उसका संक्रम नहीं होता। मिथ्यात्वका सम्यग्दष्टि जीव संक्रामक होता है। मात्र जिस सम्यग्दष्टिके एक आवलिसे अधिक सत्कर्म विद्यमान है ऐसा जीव इसका संक्रामक होता है। यही नियम सम्यग्मिथ्यात्वके लिये भी लागू करना चाहिए। पर इसका संक्रामक मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दष्टि दोनों होते हैं। स्त्रीवेद और नपंसकवेदका उपशम और क्षय क्रियाका अन्तिम समय प्राप्त होने तक कोई भी जीव संक्रामक होता है। पुरुषवेद और तीन संज्वलनका उपशम और क्षयका प्रथम समय प्राप्त होने तक कोई भी जीव संक्रामक होता है। संज्वलन लोभका ऐसा जीव संक्रामक होता है जिस उपशामक और क्षपकने संज्वलन लोभके अन्तरका अन्तिम समय नहीं प्राप्त किया है । तथा जो अक्षपक और अनुपशामक है वह भी इसका संक्रामक होता है । चारों आयुओंका संक्रम नहीं होता ऐसा स्वभाव है । यशःकीतिको
छोडकर सब नामकर्मकी प्रकृतियोंका सकषाय जीव संक्रामक होता है । मात्र जिसके एक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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