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________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दार ठिदिसंतकम्मपमाणाणुगमो ( ५२९ देव-णिरयाउआणं जं टिदिसंतकम्मं तेत्तीस सागरोवमाणि पुत्वकोडीए तिभाएणब्भहियाणि, जाओ द्विदीओ तेत्तीसं सागरोवमाणि पडिवुण्णाणि । मणुसतिरिक्खाउआणं जं दिदिसंतकम्मं तिण्णिपलिदोवमाणि पुवकोडीए तिभाएणब्भहियाणि, जाओ द्विदीओ तिणिपलिदोवमाणि पडिवुण्णाणि । __णिरयगइ-तिरिक्खगइ-एइंदियजादि-पंचिदियजादि-ओरालिय-वेउन्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघाद-असंपत्तसेवट्टसंघडण हुंडसंठाण-वण्ण- गंध-रसफास-णिरयाणुपुश्वि-तिरिक्खाणुपुग्वि-अगुरुगलहुग-उवघाद-परघाद--आदावुज्जोव-उस्सास-अप्पसत्थविहायगइ-तस-थावर बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुभ-दूभगदुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्तिणिमिणणामाणं जं दिदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। णवरि णिरयगइ-तिरिक्खगइणामाणं तप्पाओग्ग-आणुपुग्विणामाणं च एइंदिय-ओरालिय-तप्पाओग्गअंगोवंग-बंधण-संघादणामाणं असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावरणामाणं च उक्कस्सयं जं टिदिसंतकम्मं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ, जाओ द्विदीओ समऊणाओ। मणुसमइ-पंचसंठाणपंचसंघडण-थिरसुह-सुहग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तीणं जं द्विदिसंतकम्मं जाओ द्विदीओ च. वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ आवलियूणाओ । देवगदितिण्णिजादि देवाणुपुस्वि-मणुस्साणुपुस्वि-सुहम-अपज्जत्त--साहारणाणं जं द्विदिसंतकम्मं वीसं जस्थितियां आवलीसे हीन चालीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण है । देवायु और नारकायुका जस्थितिसत्कर्म पूर्वकोटिके तृतीय भागसे अधिक तेतीस सागरोपम तथा जस्थितियां परिपूर्ण तेतीस सागरोपम मात्र हैं। मनुष्यायु और तिर्यगायका जस्थितिसत्कर्म पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्योपम तथा जस्थितियां परिपूर्ण तीन पल्योपम प्रमाण है। __ नरकगति, तिर्यग्गति, एकेंद्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा तत्प्रायोग्य अंगोपांग, बन्धन व संघात, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, हुण्डसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नारकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग दुम्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और निर्माण; इन नामकर्मोंका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां परिपूर्ण बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। विशेषता इतनी है कि नरकति व तिर्यग्गति नामकर्मों, तत्प्रायोग्य आनुपूर्वी नामकर्मों, तथा एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर एवं तत्प्रायोग्य अंगोपांग, बंधन और संघात नामकर्मोका, तथा असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, आतप और स्थावर नामकर्मोंका उत्कृष्ट जस्थितिसत्कर्म परिपूर्ण वीस कोडाकोडि सागरोपम तथा जस्थितियां एक समय कम बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं। मनुष्यति, पांच संस्थान, पांच संहनन; स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका जस्थितिसत्कर्म और जस्थितियां आवलीसे हीन बीस कोडाकोडि सागरोपम मात्र हैं । देवगति, तीन जाति, देवगत्यानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, NS अ-काप्रत्योः 'पुबकोडीओ ' इति पाठः। ताप्रती 'बादर-पत्ते यसरीर' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'जाओ दिदीओ जं दिदिसंतकम्मं च ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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