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________________ १६ सादासादाणुयोगद्दारं अजियं जियसयलविभुं परमं जय-जीयबंधवं णमिउं । सादासादणुयोगं समासदो वण्णइस्सामो ॥ १॥ सादासादे ति अणुयोगद्दारस्स पंच अणुयोगद्दाराणि । तं जहा- समुक्कित्तणा अट्ठपदं पदमीमांसा सामित्तं अप्पाबहुअं चेदि । समुक्कित्तणा त्ति जं पदं तस्स विहासा। तं जहा- एयंतसादं अणेयंतसादं एयंतअसादं अणेयंतअसादं च अस्थि । समुक्कित्तणा गदा। अट्टपदं । तं जहा- जं कम्मं सादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिच्छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंतसादं । तवदिरित्तं अणेयंतसादं । जं कम्मं असादत्ताए बद्धं असंछुद्धं अपडिच्छुद्धं असादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंतअसादं । तव्वदिरित्तमणेयंतअसादं । एवं अट्ठपदं गदं ।। पदमीमांसा । तं जहा- एयंतसादमत्थि उक्कस्सयमणुक्कस्सयं जहण्णमजहणणयं च । एवं सेसाणं पि वत्तव्वं । पदमीमांसा गदा । जिन्होंने समस्त विभुओंपर विजय प्राप्त कर ली है और जो जगत्के जीवोंकी हितैषी हैं उन उत्कृष्ट अजित जिनेन्द्रको नमस्कार करके संक्षेपमें सातासातअनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ॥ १।। 'सातासात ' इस अनुयोगद्वारके पांच अवान्तर अनुयोगद्वार हैं । यथा- समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना यह जो पद है उसकी विभाषा बतलाते हैं। यथा- एकान्तसात, अनेकान्तसात, एकान्तअसात और अनेकान्तअसात है । समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ___ अर्थपदका कथन इस प्रकार है- सातास्वरूपसे बांधा गया जो कम संक्षेप व प्रतिक्षेपसे रहित होकर सातास्वरूपसे वेदा जाता है उसका नाम एकान्तसात है । इससे विपरीत अनेकान्तसात है । जो कर्म असातारूपसे बांधा जाकर संक्षेप व प्रतिक्षेपसे रहित होकर असातास्वरूपसे वेदा जाता है उसका नाम एकान्त असात है। इससे विपरीत अनेकान्तअसात कहा जाता है। इस प्रकार अर्थपद समाप्त हुआ। पदमीमांसाका कथन इस प्रकार है- एकान्तसात उत्कृष्ट है, अनुत्कृष्ट है, जघन्य ह और अजघन्य भी है। इसी प्रकार शेष अनेकान्तसात आदिके सम्बन्ध में भी कहना चाहिये । इस प्रकार पदमीमांसा समाप्त हुई । ४ ताप्रतौ — एवं मीमांसा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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