SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं सव्वलहुं खवणाए अन्भुट्टिदो, जाधे तेण एदासि चरिमफालि सव्वसंकमेण संकामिदा ताधे तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । मणुसगइ-मणुसगइ-पाओग्गाणुपुव्वीणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमा पुढवीए अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णे सव्वणिरुद्ध सेसे मिच्छत्तं गदो, उव्वट्टिदो, तिरिक्खेसुववण्णो, तस्स पढमसमयतिरिक्खस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । देवगइ देवगइपाओग्गाणुपुव्वी वेउ व्वियसरीर-वेउब्वियसरी रंगो वंग- बंधण-संघादामुक्कस्सओ पदेससंकमा कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो मणुस्स-तिरिक्खेसु एदाओ पडीओ yoवकोfsyधत्तं बंधिय खवणाए अब्भुट्टिदो, तस्स जाधे परभवियणामाणं बंधवोच्छेदो जादो, तदो उवरि बंधावलियाए अदिक्कताए एदासि पयडीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो । सर्वलघु काल में क्षपणामें उद्यत होता है, वह जब इनकी अन्तिम फालिको सर्व संक्रम द्वारा संक्रान्त करता है तब इसके उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता ? जो गुणित कर्माशिक सातवीं पृथिवीमें प्रारम्भिक अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त होकर सर्वनिरुद्ध अर्थात् आयुमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, फिर वहांसे निकल - कर जो तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ है उसके तिर्यंच होने के प्रथम समय में मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघातका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक जीव मनुष्यों व तिर्यंचों में इन प्रकृतियोंकी पूर्वकोटिपृथक्त्व तक बांधकर क्षपणा में उद्योत होता है, उसके जब परभविक नामकर्मोकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है तब उसके पश्चात् बन्धावली के व्यतीत होनेपर इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । * अ-काप्रत्योः 'उबट्टिदो ' इति पाठ: । अ-काप्रत्योन लभ्यते पदमिदम् । * सव्वचिरं सम्मतं अणपालिय पूरउत्तु मणयदुगं । सत्तपखिइनिग्गइए पढमे समए नरदुगस्स ॥ क. प्र. २, ९१. सव्वचिरं ति - सव्वचिरं सर्वोत्कृष्टं कालं अन्तर्मुहूर्तानानि त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणीत्यर्थः । सम्यक् वमनुपालय नारकः सप्तमक्षितौ वर्तमानः सम्यक्त्वप्रत्ययं तावन्तं कालं मनुजद्विकं मनुजगति मन्जानपूर्वीलक्षणमापूर्य बध्वा चरमेऽन्तर्मुहूर्ते मिध्यात्वं गतः । ततस्तन्निमित्तं निर्यद्विकं तस्य बध्ननो गणितकर्माशस्य सप्तमपृथिव्याः सकाशाद् विनिगतस्य प्रथमसमये एव मनुजद्विकं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण तस्मिन् तिर्यद्रिके बध्यमाने "कमतस्तस्य मनुजद्विकस्योस्कृष्टः प्रदेशक्रमो भवति । मलय देवगईनवगस्स य सगबंधंतालिगं गंगुं ॥। २ क. प्र. २-९० तथा देवगतिनवकं देवगति देवानपूर्वीवैक्रिधिकसप्तकलक्षणं यदा पूर्वको टिपृयकावं यावदापूर्याष्टममवे क्ष किश्रेणि प्रतिपन्नः सन् स्वकबन्धान्तात् स्वबन्धव्यवच्छेदादनन्तरमात्र लिकामात्रं कालमतिक्रम्य यश की प्रक्षिपति तदा तस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । तदानीं हि तरलकाता गुणसंकपेज ला संक्रमालिका तिक्रान्तत्वेन संक्रमः प्रापन इति कृत्वा । मलय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy