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संकमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो
( ४२९ आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-बंधण-संघादाणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जेण गुणि दकम्मंसिएण एदाहि चदुहि पयडीहि चिरसंचिदाहि चत्तारिवारं कसाया. उवसामिदा, तदो तस्स खवणाए अब्भुट्टियस्स परभवियणामाणं बंधे वोच्छिण्ण आवलियादिक्कंतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो*।
औरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-तदंगोवंग-बंधण-संघादाणं मदिआवरणभंगो। पसत्थसंठाण-संघडण-सुभगादेज्ज-सुस्सराणमुक्कस्सओ पदेससंकंमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ बेछावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेयण चदुक्खुत्तं कसाए उवसामिय खवणाए अब्भुट्टिदो, तस्स परभवियणामाणं बंधवोच्छेदादो आवलियादिक्कंतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो। णवरि वज्जरिसहसंघडणस्स चरिमदेवभवचरिमसमए उकस्सओ पदेससंकमो ।
आहारशरीर, आहारशरीरांगोपांग, आहारशरीरबन्धन और आहारशरीरसंघातका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम किसके होता है ? जिस गुणितकौशिक जीवने चिरसंचित इन चार प्रकृतियों के साथ चार वार कपायों का उपशम किया है और तत्पश्चात् जो क्षपणामें उद्यत हुआ है उसके परभविक नामकर्मोंको बन्धव्युच्छित्ति हो जाने के पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उक्त चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर तथा उनके अंगोपांग, बन्धन और संघातकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। प्रशस्त संस्थान, प्रशस्त संहनन, सुभग, आदेय और सुस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन करके और चार बार कषायोंको उपशमा करके क्षपणाम उद्यत हुआ है, उसके परभविक नामकर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने के पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेष इतना है कि वज्रर्षभनाराचसंहननका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अन्तिम देवभवके अन्तिम समयमें होता है।
. अ-काप्रत्यो: 'कसाय', ताप्रतौ कसायया' इति पाठः ।
* आहारग-नित्थयरं थिरसममुक्कस्स सम (ग) कालं ॥ क. प्र. २, ९२. इयमत्र भावना- आहारसप्तकं तीर्थकरनाम चोत्कृष्टं स्वबन्धकालं यावदापूर्य ताहारसप्तकस्य स्वबन्धकाल उत्कृष्टो देशोनां पूर्वकोटी यावत्संयममनुपालयतो यावानप्रमतताकालस्तावान् सर्वो वेदितव्यः । मलय.
. सम्मदिट्ठिस्स सुभधुवाओ वि। सुभसघयणजुयाओ बत्तीससयोदहिचियाओ ॥ क. प्र. २, ८९. सम्यग्दृष्टेर्या शुभध्रुवबन्धिन्यः पंचेन्द्रियजाति-समचतुरस्रसंस्थान-पराघातोच्छ्वास-प्रशस्तविहायोगति-त्रस-बादरपर्याप्त-प्रत्येक-सुभग-सुस्वरादेयलक्षणा द्वादशप्रकृतयः शुमसंहननयुता वज्रर्षभनाराचसंहननसहिताः। xxx तथाहि- षट्षष्ठिसागरोपमाणि यावत्सम्यक्त्वमनुपालयन् एता बध्नाति । ततोन्तर्मुहर्ते कालं यावत् सम्यग्मिथ्यात्वमनु मय पुनरपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । ततो भूयोऽपि सम्पत्वमनुभवन् षट्षष्टिसागरोपमाणि यावदेत्ताः प्रकृतीः बध्नाति । तदेवं द्वात्रिंशदभ्यधिक सागरोपमशतं यावत् सम्यग्दृष्टिध्रुवा आपूर्व, वज्रर्षभनाराचसंहनन तु मनुष्यभवहीनं यथासंभवमुत्कृष्टं कालमापूर्य, ततः सम्यग्दष्टेवा अपूवंकरणगणस्थानके बन्धव्यवच्छेदानतरमावलिकामानं कालमतिक्रम्प यशःकीतौँ संक्रमयतस्तापामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमः . मलय.
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