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________________ ४३० ) छक्खंडागमे संतकम्मं पसत्थाणं धुवबंधिणामा सम्मत्तद्धा सव्वरहस्सा कायव्वा, अण्णहा गुणिदत्ताणुववत्तदो । चदुक्खुत्तं कसाए उवसामेदूण खवणाए तस्स परभवियणामबंधवोच्छेदादो आवलियादिक्कतस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । एवं थिर- सुभाणं । परघादुस्सास -पसत्थविहायगइ-तस -- बादर -- पज्जत्त - पत्तेयसरीराणं सुहाणामभंगो । - जसकित्तीए सुहाणामभंगो । णवरि परभवियणामाणं बंधवोच्छेदस्स चरिमसगए उक्कस्सओ पदेससंकमो कायव्वो । एइंदिय - आदाव थावरणामाणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ ईसाणदेवे पच्छायदो साइं पि अणुवसामिदकसाओ सव्वलहुं खवणाए अभुट्टो, तस्स चरिमसमयसंछुहमाणयस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । उज्जोवणामाए वि ईसाणदेवपच्छायदे खवगे सव्वसंकमेण संकामेंतए उक्कस्ससामित्तं दादव्वं । किं कारणं? तसजादिणामाओ बहुआओ पयडीओ बंधदि, एइंदियजादिणामाओ थोवाओ बंधदि । तदो रइयो तसजादिणामपडिभागं बंधदि उज्जोवणामं, ईसाणदेवा पुण प्रशस्त ध्रुवबन्धी नामकर्मीका सम्यक्त्वकाल सबसे हृस्य करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना गुणितत्व बन नहीं सकता । चार बार कषायोंको उपशमा कर जो क्षपणामें उद्यत होता हँ उसके परभविक नामकर्मोंको बन्धव्युच्छित्तिके पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार स्थिर और शुभ प्रकृतियोंके विषय में कहना चाहिये । परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरकी प्ररूपणा शुभ नामकर्मके समान है । यशकीर्तिकी भी प्ररूपणा शुभ नामकर्मके समान है । विशेषता इतनी है कि उसला उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम परभविक नामोंकी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें करना चाहिये । केन्द्र, आप और स्थावर नामकर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो गुणितकर्माशिक ईशान देव देवपर्यायसे पीछे आकर एक बार भी कषायोंको न उपशमा कर सर्वलघु कालमें क्षपणामें उद्यत होता है उसके निक्षेपण करते हुए अन्तिम समयमें उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । ईशानकल्पगत देवपर्यायसे पीछे आकर सर्वसंक्रमके द्वारा उद्योत नामकर्मका संक्रमण करनेवाले क्षपकके उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व देना चाहिये । इसका कारण क्या है ? समाधान- त्रसजाति नामकर्मोको बहुत बांधता है और एकेन्द्रियजाति नामकर्भीको स्तोक बांधता है । इसलिये नारक जीव उद्योत नामकर्मको त्रसजाति नामकर्मके प्रतिभाग रूप है, परन्तु ईशान देव उसको ही एकेन्द्रियजाति नामकर्मके प्रतिभाग रूप बांधते है । प्रतिषु 'धुबबंधविणाणं इति पाठः । अप्रतो' गुणदत्ता', तातो 'गुण (णि) दत्ता-' इति पार: । थावर तज्जा- आग्राबुज्जोयाओ नपुंसगसमाओ । क. प्र. २, ९२. ताप्रती 'पर्याडभागं' इति पाठः । तातो 'बंधदि, उज्जोवणामं ईसाणदेवा, पुण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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