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________________ (४२७ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो जाव* लोभो ताव* तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । __ आउआणं चदुण्णं पि णत्थि पदेससंकमो । णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो पुव्वको डिपुधत्तं मणुस्स-तिरिक्खे बंधतो अच्छिदो, पच्छा खवणाए अब्भुट्टिदो, तदो तेण जाध् सव्वसंकमेण णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं चरमफालीयो संकामिदाओ ताध तेसिमुक्कस्सओ पदेससंकमो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणं उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जो गुणिदसकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो, समयाविरोहेण मणुस्सेसु उववण्णो, करता है तब उसके संज्वलन लोभका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम होता है । चारों ही आयुकर्मों का प्रदेश पंक्रम नहीं होता। नरकगति और नरकगतियोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक बन्ध करता हुआ मनुष्य व तिर्यंचोंमें स्थित रहता है, पश्चात् क्षपणामें उद्यत होकर जब वह सर्वसंक्रम द्वारा नरकगति और नरकगतिप्रोग्यानुपूर्वीकी अन्तिम फालियोंका संक्रान्त करता है तब उसके उन दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । तिर्यग्गति और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीसे निकलकर और समयाविरोधसे मनुष्योंमें उत्पन्न होकर * का-ताप्रत्योः 'जावे' इति पाठः। * काप्रती 'तावे' इति पाठः । * लोभसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स? गुणिक्कम्मंसिओ सव्वलहुं खवणाए अब्भुट्टिदो अंतर से काले कादूण लोहस्स असंकामगो होहिदि त्ति तस्स लोहस्स उक्कस्सओ पदेससंकमी । क. ण सु. प ४०५, ४४-४५. चउरुवसमित्तु खिप्पं लोभ-जसाणं ससंकमस्संते । क. प्र २, ८८. अनेकभवभ्रमणेन चतुरो वारान् यावन्मोहनीयमुपशमय्य, चतुर्थोपशमनानन्तरं शीघ्रमेव क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य तस्यैव गणितकर्माशस्य स्वसंक्रमस्यान्ते चरमबंछोभे इत्यर्थः, संज्वलनलोभ-यशःकीयोरुत्कृष्ट: प्रदेशसंक्रमो भवति । इहोपशमश्रेणि प्रतिपन्नेन सता प्रकृत्यन्तरदलिकाना प्रभूतानां गणसंक्रमेण तत्र प्रक्षे गत् द्वे अषि सज्वलनलोभ-यशः कीर्तिप्रकृती निरन्तरमापूर्येते, तत उपशमश्रेणिग्रहणम् । आसंसारं च परिभ्रमता जन्तुना मोहनीयस्य चतुर एव वारान यावदुपशमः क्रियते, न पंचममपि वारम्, ततश्चतुरुपशमय्येत्युक्तम् । तथा संज्वलनलोभस्य चरमसंछोभोऽ न्तरकरणचरमसमये दृष्टव्यः, न परतः, परतस्तस्य संक्रमाभावात्, "अंतरकरणम्मि कए चरित्तमोहे णु (णं)पुग्विसकमणं" इति वचनात् । मलय. 8 अ-काप्रत्यो: ' मणुस्समगुस्सतिरिक्खे', ताप्रती ( मणुस । मणुस-तिरिक्खे इति पाठः । ४ पूरित्तु पुव्वकोडीपुहुत्त संछोभगस्स निरयदुग । क प्र. २-९०. पूरित्तत्ति-नरकद्विकं नरकगतिनरकानपूर्वीलक्षणं दुर्वकोटिपृथक्त्वं यावत्पुरयित्वा, सप्तसु पूर्वकोटवायुष्केषु तिर्यग्भवेष भयो भयो बध्वेत्यर्थः । ततोऽष्टमभवे मनुष्यो भूत्वा क्षपकणि प्रतिपन्नोऽन्यत्र तन्नरकद्विकं कारन चरमसंझोमे सर्वसंक्रमेण तस्योत्कृष्टं प्रदेशसंक्रमं करोति । मलय. 8 अ-काप्रत्योः 'उवट्टिदो'. ताप्रती ' उवट्टिदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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