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________________ पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारे किट्टिकरणादिविहाणं ( ५२१ तो अंतमत्तं किट्टीयो करेदि । अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखे० भागमोवट्टेदि । जीवपदेसाणमसंखे० भागमोवट्टेदि । एत्तो अंतोमुत्तं किट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए, जीवपदेसाणं च असंखे० गुणाए sir ओट्टेदि । किट्टीदो किट्टिगुणगारो * पलिदो ० असंखे० भागो । किट्टीओ सेडीए असंखे ० भागो, अपुव्वफद्दयाणं च असंखे० भागो । किट्टिकरणे णिट्टिदे तदो से काले अव्वफद्दयाणि पुव्वफद्दयाणि च णासेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टिगदजोगो होदि । सुहुम किरियम पडिवादिझाणं झायदि । किट्टीणं चरिमसमए असंखे० भागे णासेदि* । जोगम्हि णिरुद्धम्मि आउअसमाणि कम्माणि करेदि । तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसि पडिवज्जदि, समुच्छिण्ण किरियमणियट्टिझाणं झायदि । सेलेसिअद्धाए ज्झीणाए सव्वकम्मविष्पमुवको एमसमएण सिद्धिं गच्छदि ति एवं पच्छिमवखंधे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । यहांसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल कृष्टियोंको करता है । अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिम वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपवर्तन करता है । जीवप्रदेशोंके अविभागप्रति च्छेदोंके असंख्यातवें भाग का अपवर्तन करता है । यहांसे अन्तर्मुहूर्त काल असंख्यातगुणहीन श्रेणि क्रमसे कृष्टियोंका करता है, जीवप्रदेशोंका असंख्यातगुणित श्रेणिके क्रमसे अपवर्तन करता है । कृष्टिसे कृष्टिका गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है । कृष्टियां श्रेणिके असंख्यातवें भाग तथा अपूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं । कृष्टिकरण के समान होनेपर तत्पश्चात् अनन्तर समय में अपूर्वस्पर्धकों और पूर्वस्पर्धकों को भी नष्ट करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल कृष्टिगतयोग होता है और सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपातिध्यानको ध्याता है । कृष्टि अन्तिम समय में असंख्यात बहुभागको नष्ट करता है। योगका निरोध हो जानेपर कर्मोंको आयु समान करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में शैलेश्यभावको प्राप्त करता है और समुच्छि - नक्रिया अनिवृत्तिध्यानको ध्याता है । शैलेश्यकाल के क्षीण होनेपर सब कर्मोंसे मुक्त होकर एक समय में सिद्धिको प्राप्त होता है । इस प्रकार 'पश्चिमस्कन्ध' यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । - कसा पाहुडसुते तु ' किट्टीदो किट्टिगुणगारो' इत्येतस्य स्थाने ' किट्टीगुणगारो ' इति पाठः । प्रतिषु 'किट्टीए' इति पाठः । अप्रतौ ' अपुग्वफयाण अपुग्वफद्दयाणि ' इति पाठ: । * अ-काप्रत्योः ' णासेडि ' इति पाठ: । क. पा. सु. पृ. ९०५, ३६-५२. प्र तेषु ' खंडे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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