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________________ छक्खंडागमे संतकम्म जह० एगसमओ, उक्क० चदुवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । तिसंजलण-पुरिसवेदाणं जह० एयसमओ, उक्क० वस्सं सादिरेयं । इस्थि-णवंसयवेदाणं जह० एगसमओ, उक्क० बासपुधत्तं । तिरिवखाउअस्स णत्थि अतरं। तिण्णमाउआणं जह० एगसमओ, उक्क० बारस मुत्ता। एवमंतरं समत्तं । __ अप्पाउहुअं- उक्क० मणुस-तिरिक्खाउआणं जाओ द्विदीओ संकामिज्जति ताओ थोवाओ। जट्टिदीयो विसेसा०* । देव-णिरयाउआणं जाओ द्विदीयो संकामिज्जति* ताओ संखेज्जगुणाओ। जद्विदीओ विसेसाहियाओ। आहारसरीर० संखेज्जगुणाओ। जट्टिदीओ विसे । देव-मणुसगइ-जस कित्ति-उच्चागोदाणं जाओ द्विदीओ संकामिज्जति ताओ संखे० गुणाओ। जहिदीयो विसे० । गिरय-तिरिक्खगइ-अजसकित्ति-चदुसरीरणीचागोदाणं जाओ द्विदीओताओतत्तियाओ चेव। जद्विदीयो विसेसाहियाओ। सादस्स जाओ द्विदीओ ताओ विसेसाहियाओ। जट्ठिदीयो विसे० ओ। पंचणाणावरण-णवदंसपावरण-असाद-पंचंतराइयाणं जाओ द्विदीओ ताओ तत्तियाओ चेव। जट्टिदीयो विसे० ओ० । णवणोकसायाणं जाओ द्विदीयो ताओ विसे० ओ। जद्विदीयो विसे० ओ। जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक चौबीस दिन-रात्रि प्रमाण होता है। तीन संज्वलन कषाय और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक एक वर्ष मात्र होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उक्त अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। तिर्यगायुका वह अन्तर सम्भव नहीं है। शेष तीन आयु कर्मोंका उक्त अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे बारह मुहूर्त मात्र होता है। इस प्रकार अन्तरका कथन समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है- उत्कर्षसे मनुष्यायु और तिर्यगायुकी जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे स्तोक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। देवायु और नारकायुको जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे उनसे संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक है। आहारशरीरकी संक्रमण को प्राप्त होनेवाली स्थितियां संख्यातगुणी हैं । जस्थितियां विशेष अधिक हैं। देवगति, मनुष्यगति, यशकीति और उच्चगोत्रकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे संख्यातगुणी हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नरकगति, तिर्यग्गति, अयशकीर्ति व चार शरीर नामकर्मोकी तथा नीच गोत्रकी जो स्थितियां संक्रमणको प्राप्त होती हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पांच अन्तराय; इनकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे उतनी मात्र ही हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। नौ नोकषायोंकी जो स्थितियां संक्रान्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं। जस्थितियां विशेष अधिक हैं। ४ अप्रतौ 'अप्पाबहुअ०' इति पाठः। * अप्रतौ 'विसेसाहिओ' इति पाठः । * अप्रतौ 'संकामिजंत' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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