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________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसतकम्म दडओ ( ५९३ अरदि० विसे० । णवंस० विसे० । दुगंछ० विसे० । भय० विसे० । माणसंजल० विसे० । कोह० विसे० । माया० विसे० । लोह० विसे० । दाणंतराइए विमे० । लाहंत० विसे० । भोगंत० विसे० । परिभोगंत० विसे० । विरियंतरा विसे० । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० विसे० । मदि० विसे० । ओहिदंस० विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्ख० विसे० । असादे संखेज्जगुणं । णीचागोदे जहण्णयं पदेससंतकम्मं विसेसाहियं । एवमेइंदियदंडओ समत्तो। एवं चउवीसदिमअणयोगहारं समत्तं । अधिक है । नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मान में विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभ में विशेष अधिक है । दानान्तरायम विशेष अधिक है। लाभान्तरायमें विशेष अधिक है। भोगान्तराय में विशेष अधिक है । परिभोगान्त राय में विशेष अधिक है । वीर्यान्तरायमें विशेष अधिक है । मन:पर्ययज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । श्रुतज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मतिज्ञानावरणमें विशेष अधिक है । अवधिदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है । चक्षुदर्शनावरण में विशेष अधिक है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है । नीचगोत्रमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म बिशेष अधिक है। इस प्रकार एकेन्द्रियदण्डक समाप्त हुआ। इस प्रकार चौबीसवाँ अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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