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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४५९ एगजीवेण अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च सामित्तादो एयजीवेण कालादो च साधेदूण भाणियत्वं । अप्पाबहुअं। तं जहा- मदिआवरणस्स अवत्तव्वसंकामया थोवा। अवट्ठिय० अणंतगुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा। भुजगार० संखे० गुणा। सेसचदुणाणावरणणवदसणावरण-पंचंतराइयाणं मदिआवरणभंगो। सादासादाणं अवत्तव्व० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा, एगावलियसंचिदभुजगारसंकामयजीवेहितो अंतोमुत्तसंचिदअप्पदरसंकामयजीवाणं संखेज्जगुणत्तसिद्धीए णिब्बाहमुवलंभादो। सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं मदिआवरणभंगो। हस्स-रदीणमवत्त० थोवा । भुज० अणंतगुणा। अप्पदर० संखे० गुणा । एवमित्थिवेदस्स । अरदि-सोगाणमवत्त० थोवा। अप्पदर० अणंतगुणा । भुजगार० संखे० गुणा। एवं णवंसयवेदस्स। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर एवं नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरका कथन स्वामित्वसे तथा एक जीवको अपेक्षा कालसे भी सिद्ध करके कहना चाहिये । अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- मतिज्ञानावरणके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। अवस्थित संक्रामक अनन्तगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। भुजाकार संक्रामक संख्यातगुणे हैं। शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियों का यह अल्पबहुत्व मतिज्ञानावरणके समान है। __ साता और असाता वेदनीयके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक संख्यातगुण हैं, क्योंकि, एक आवलिमें संचित भुजाकार संक्रामक जीवोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहुर्त संचित अल्पतर संक्रामक जीवोंके संख्यातगुणत्वकी सिद्धिनिर्बाध पायी जाती है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । हास्य और रतिके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक है। भुजाकार संक्रामक अनन्तगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेदके सम्बन्धमें कहना चाहिये । अरति और शोकके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। अल्पतर संक्रामक अनन्तगुणे हैं। भुजाकार संक्रामक संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार नपुंसकवेदके सम्बन्धमें कहना चाहिये । पुरुषवेदके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं । ४ प्रतिष ‘राकामिय' इति पाठः । 4 सोलसकसाय-भय-दुगंछाणं सव्वत्थोवा अवतन्त्र संकामया। अवट्टिदसंकामया अणंतगुणा । अप्पयर संकामया असंखेज्जगुणा। भजगारसंकामया संखेज्जगुणा। क. पा. सु. पृ. ४४३, ५०४-७. * इत्थिवेद-हस्स-रदीणं सम्वत्थोवा अवत्तव्वसंकामया। भुजगारसंकामया अणंतगुणा । अप्पयरसंकामया संखेज्जगणा । क. पा. सु.पृ. ४४३, ५०८-१०. णवंसयवेद-अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा अवतव्वसंकामया। अप्पदरसंकामया अणंतगणा । भुजगार संकामया संखेज्जगुणा। क. पा. सु. पु. ४४४, ५१५-१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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