SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० णिधत्तमणिधत्ताणुयोगद्दार मिण सुपासजिणं तियसेसरवंदियं सयलणाणि । वोच्छं समासदो हं णिधत्तमणिधत्तमणुयोगं ॥ १ ॥ धित्तमणिधत्ते त्ति अणुयोगद्दारे अत्थि पयडिणिधत्तं द्विदिणिधत्तं अणुभागणिधत्तं पदेसणिधत्तं चेदि । तत्थि अट्ठपदं -- जं पदेसग्गं णिधत्तीकां उदए दादुं णो सक्के, अण्णपर्याड संकामिदं पि णो सक्कं, ओकड्डिदुमुक्कड्डिदुं च सवर्क; एवंविहस्स पदेसग्गस्स णिधत्तमिदि सण्णा । इममण्णं साहणं । उवसामयस्स वा खवयस्स* वा सव्वकम्माण अणियट्टिट्ठाणं पवट्ठिस्स अणिधत्तानि, तेसु णिधत्तलक्खणाणं सव्वेसि विणासादो । अनंताणुबंधिणो विसंजोएंतस्स अणियट्टिकरणम्हि अनंताणुबंधिचदुक्कमणिधत्तं, सेसाणिE कम्माणि णिधत्ताणि आणिधत्ताणि च । दंसण ? मोह वसामय अणियट्टिकरणम्हि दंसणमोहखवगस्स अणियट्टिकरणे च दंसणमोहणीयं चेव अणिधत्तं *, सेसाणि कम्माणि णिधत्ताणि आणिधत्ताणि च । एदेण अट्ठपदेण चवीस अणुयोगद्दारेहि णिधत्तस्स अणिधत्तस्स च मूलुत्तरपयडीओ अस्सिदूण परूवणा कायव्वा । एवं णिधत्तमणिधत्ते त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । त्रिदशेश्वर अर्थात् इन्द्रोंसे वन्दित और पूर्णज्ञानी ऐसे सुपार्श्व जिनको नमस्कार करके मैं संक्षेप में निधत्तमनिधत्त अनुयोगद्वारका कथन करता हूं ॥ १ ॥ निधत्तमनिधत्त अनुयोगद्वार में प्रकृत्तीनिधत्त, स्थितिनिधत्त, अनुभागनिधत्त और प्रदेशनिधत्त हैं । उनमें अर्थपद -- जो प्रदेशाग्र निघत्तीकृत है अर्थात् उदयमें देनेके लिये शक्य नहीं है, अन्य प्रकृति में संक्रान्त करनेके लिये भी शक्य नहीं है, किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षण करने के लिये शक्य है; ऐसे प्रदेशाग्रकी निधत्त संज्ञा है । यह अन्य साधन है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट हुए उपशामक अथवा क्षपक जीवके सब कर्म अनिषत्त हैं, क्योंकि, उनमें सब निघत्तलक्षणों का अभाव है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके अनिवृत्तिकरणम अनन्तानुबन्धिचतुष्क अनिधत्त और शेष कर्म निधत्त व अनिधत्त भी हैं । दर्शनमोहउपशामक के अनिवृत्तिकरण में और दर्शन मोहक्षपत्रके अनिवृत्तिकरण में केवल दर्शनमोहनीय ही अनिधत्त है, शेष कर्म निधत्त व अनिधत्त भी हैं। इस अर्थपदके अनुसार मूल और उत्तर प्रकृतियों का आश्रय करके निधत्त और अनिधत्तकी प्ररूपणा चौबीस अनुयोगद्वारोंके द्वारा करना चाहिये । इस प्रकार निघत्तमनिधत्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Xx देसोवसमणतुल्ला होइ निती निकाइन नवरं । संकमणं पि निहत्तीए णत्थि सेसाग वियरस्स ॥ क. प्र. ५, ७२. ताप्रती इमं सण्णं साहणं' इति पाठ: । अ-काप्रत्यो: 'खंधयस्स', ताप्रती ' खंध खव ) यस्स' इति पाठ: । अप्रतौ ' अणिवणत्ताणि', काप्रतो 'अणिवण्णत्ताणि' इति पाठः । अरतौ चदुक्क मणिवण्ण से सागि ' काप्रतौ 'चदुक्कमणिवणसे साणि ' इति पाठः । अप्रतौ 'निधनाणि आणिधत्ताणि अणिदत्ताणि च दंसण-', काप्रतौ 'णिधताणि आणिधत्ताणि दंसण-', ताप्रतौ, 'णिधत्ताणि (अणिधत्ताणि) अधिताणि च दंसण' इति पाठः । अप्रतौ ' अणिधगतं', तातो 'अधि (ण) त्तं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy