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२१ णिकाचिदमणिकाचिदाणुयोगद्दारं
हंसमिव घवलममलं जम्मण जर मरणवज्जियं चंदं । वोच्छामि भावपणओ णिकाचिदणिकाचिदणुयोगं ॥ १ ॥
णिकाचिदमणिकाचिदमिदि अणुयोगद्दारे अस्थि पयडिणिकाचिदं ठिदिणिकाचिद अणुभागणिकाचिदं पदेसणिकाचिदं चेदि । तत्थ अट्ठपदं -- जं पदेसग्गं ओकड्डिदुं णो सक्के, उक्कड्डि णो सक्कं, अण्णपर्याड संकामिदं णो सक्कं, उदए दादु णो सक्कं तं पदेसगं णिकाचिदं णाम । अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स सव्वकम्माणि अणिकाचिदाणि, ट्ठा णिकाचिदाणि अणिकाचिदाणि च । एदेण अट्ठपदेण णिकाचिदाणिकाचिदाणं चवीस अणुयोगद्दारेहि परूवणा कायव्वा । उवसंत णिधत्त - णिकाचिदाणं सण्णियासो । तं जहा -- अप्पसत्थउवसामणाए जमुवसंतं पदेसग्गं ण तं णिधत्तं ण तं णिकाचिदं* वा । जं णिधत्तं ण तं उवसंतं णिकाचिदं वा । जं णिकाचिदं ण तं उवसंतं णिधत्तं वा ।
देसिमा बहुअं । तं जहा -- जिस्से वा तिस्से वा एक्किस्से पयडीए अधापवत्तकमो थोवो । उवसंतपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । णिधत्तमसंखेज्जगुणं । णिकाचिदमसंखेगुणं । एवं णिकाचिदमणिकाचिदं ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
हंसके समान धवल, निर्मल तथा जन्म जरा और मरणसे रहित ऐसे चन्द्रप्रभ जिनको भावपूर्ण प्रणाम करके मैं निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ निकाचितमनिकाचित अनुयोगद्वार में प्रकृतिनिकाचित, स्थितिनिकाचित, अनुभागनिकाचित और प्रदेशनिकाचित हैं। उनमें अर्थपद -- जो प्रदेशाग्र अपकर्षण करनेके लिये शक्य नहीं है, उत्कर्षण के लिये शक्य नहीं है, अन्य प्रकृति में संक्रान्त करनेके लिये शक्य नहीं है, तथा उदयमें देनेके लिये भी शक्य नही है; उस प्रदेशाग्रको निकाचित कहते हैं । अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए जीवके सब कर्म अनिकाचित हैं । उसके नीचे निकाचित भी हैं और अनिकाचित भी हैं । इस अर्थपदके अनुसार निकाचित और अनिकाचितकी चौबीस अनुयोगद्वारों के द्वारा प्ररूपणा करना चाहिये ।
उपशान्त, निधत्त और निकाचितका संनिकर्ष इस प्रकार है-- अत्रशस्त उपशामना द्वारा जो प्रदेशाग्र उपशमको प्राप्त है वह न निधत्त है और न वह निकाचित भी है। जो प्रदेशाग्रनिधत्त है वह उपशान्त और निकाचित नहीं है। जो प्रदेशाग्र निकाचित है वह उपशान्त और निधत्त नहीं है । इनका अल्पबहुत्व इस प्रकार है- जिस किसी भी एक प्रकृतिका अधःप्रवृत्तसंक्रम स्तोक है । उससे उपशान्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । उससे निधत्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । उससे निकाचित प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इस प्रकार निकाचित मनिकाचित अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
तातो 'पदेसग्गं तं णिधतं निकाचिदं ' इति पाठ: ।
अप्रती 'जं गिधगतं णं तं काप्रती जं णिघणत्तं णतं, ताप्रतौ ' ज धि ( ण ) त्तं ण त' इति पाठः । गुणसेढिएसगं थोवं उत्तेगसो असंखगंग । उवसामणा-तिसु विसंक्रमणेहप्पवत्ते य ॥ क. प्र. ५, ७३.
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