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________________ २२ कम्मठिदिअणुयोगद्दारं णमियूण पुष्फयंतं सुरहियधवलिद्धपुप्फअंचियच्चलणं। कम्मट्ठिदिअणुयोगं वोच्छामि समासदो पयत्तेण ॥१॥ कम्मढिदि त्ति अणुयोगद्दारम्हि भण्णमाणे बे उवदेसा होंति- जहण्णुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मढिदिपरूवणे ति णागहत्थिखमासमणा भणंति । अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मढिदिसंचिदसंतकम्मपरूवणा कम्मढिदिपरूवणे त्ति भणंति । एवं दोहि उवएसेहि कम्मट्ठिदिपरूवणा कायव्वा । एवं कम्मट्ठिदि त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । सुगन्धित, धवल और समृद्ध पुष्पों द्वारा जिनके चरणोंकी पूजा की गयी है उन पुष्पदन्त जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं प्रयत्नपूर्वक संक्षेपमें कर्मस्थिति अनुयोगद्वारका कथन करता हूं ॥१॥ ___ मकस्थिति अनुयोगद्वारके निरूपण करने में दो उपदेश हैं- जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा कर्मस्थितिप्ररूपणा है, ऐसा नागहस्ती क्षमाश्रमण कहते हैं । परन्तु आर्यमंक्षु क्षमाश्रमण कहते हैं कि कर्मस्थितिसंचित सत्कर्मकी प्ररूपणाका नाम कर्मस्थितिप्ररूपणा है । इस प्रकार दो उपदेशोंके द्वारा कर्मस्थितिको प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार कर्मस्थिति अनुयोगद्दार समाप्त हुआ। ४ अतोऽग्रे प्रतिष्वत्र अ-काप्रत्योः' अवियचलणं', ता-मप्रत्योः 'अंचियचलणं' इति पाठः । 'अहं' इत्येतदधिकं पदं समुपलभ्यते। 'अणुयोगदारेहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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