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________________ २३ पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारं सोयलजिण महिवंदिय तिहुवणजणसीयलं पयत्तेण । वोच्छं समासदो हं जहागमं पच्छिमक्खंधं २ ।। १ ।। पच्छिमभवक्खंधेत्ति अणुयोगद्दारे ओघभवो ओदसभवो भवग्गहणभवो चेदि तिविहो भव । तत्थ भवग्गहणभवेण पयदं । जो चरिमो भवो तम्हि भवे, तस्स जीवस्स सव्वकम्माणं बंधमग्गणा उदयमग्गणा उदीरणमग्गणा संकममग्गणा संतकम्ममग्गणा चेदि एदाओ पंच मग्गणाओ पच्छिमक्खंधाणुयोगद्दारे कीरंति । पर्याडि-ट्ठिदि- अणुभागपदेसग्गमस्सिद्वेण एदासु पंचसु परूवणासु कदासु तदो पच्छिमे भवग्गहणे सिज्झमाणस्स इमा अण्णा परूवणा कायव्वा । तं जहा- आउअस्स अंतोमुहुत्त से से तदो आवज्जिदकरणं करेदि । आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्धादं करेदि । पढमसमए दंडं करेदि । तत्थ द्विदीए असंखेज्जभागे हणदि । अप्पसत्थाणं कम्माणं अणुभागस्स अनंतभाग हदि । तदो बिदियसमए कवाडं करेदि । तत्थ सेसियाए द्विदीए असंखेज्जभागे हणदि, सेसाणुभागस्स च अणंते भागे हणदि । तदो तदियसमए मंथं करेदि । तत्थ वि द्विदि - अणुभागे तहेव * हणदि । तदो चउत्थसमए लोगं पूरेदि । लोगं पूरमाणे वि 1 तीन लोकके जीवोंको शीतल करनेवाले ऐसे शीतल जिनेन्द्रकी वन्दना करके मैं संक्षेपसे आगमके अनुसार पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करता हूं ॥ १ ॥ ' पश्चिमभवस्कन्ध' अनुयोगद्वार में भव तीन प्रकारका है- ओघ भव, आदेश भव और भवग्रहण भव । इनमें भवग्रहण भव प्रकरणप्राप्त है । जो अन्तिम भव है उस अन्तिम भवमें उस जीवके सब कर्मोंकी बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और सत्कर्ममार्गणा ये पांच मार्गणायें पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार में की जाती हैं । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्रका आश्रय करके इन पांच मार्गणाओंकी प्ररूपणा कर चुकनेपर तत्पश्चात् पश्चिम भवग्रहण में सिद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवकी यह अन्य प्ररूपणा करना चाहिये । यथा-- आयुके अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जानेपर तब आवर्जितकरणको करता है । आवर्जितकरण के कर चुकनेपर फिर केवलिसमुद्घातको करता है प्रथम समय में वह दण्डसमुद्घातको करता है । उसमें स्थिति के असंख्यात बहुभागको घातता है । अप्रशस्त कर्मोंके अनुभागके अनन्त बहुभागको घातता है । तत्पश्चात् द्वितीय समय में वह कपाटसमुद्घातको करता है । उसमें शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको घाता है और शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागको घातता है । पश्चात् तृतीय समयमें मंथसमुद्धातको करता है । उसमें भी स्थिति और अनुभागका उसी प्रकारसे घात करता है । तत्पश्चात् चतुर्थ समयमें लोकको पूर्ण करता है अर्थात् लोकपूरणसमुद्धातको करता है। लोक XX अ-काप्रत्यो: ' ' पच्छिमक्खंडं', ताप्रती 'पच्छिमक्खंड (धं )' इति पाठः । अ-काप्रत्यो: 'पच्छिमभमक्खंडेसि', ताप्रतौ 'पच्छितभव क्खंडे' (धे ) त्ति' इति पाठ: । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'करेंति' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'मद्ध' इति पाठः । * प्रतिषु 'तत्येव' इति पाठः । क. पा. सु पृ. ९००, २-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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