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________________ पोग्गल-अत्ताणुयोगद्दारे पुग्गलात्तत्तपरूवणा ( ५१५ चेदि । विहासा । तं जहा-- हत्थेण वा पादेण वा जे गहिदा दंडादिपोग्गला ते गहणदो अत्ता पोग्गला । मिच्छत्तादिपरिणामेहि जे अपप्णो कदा ते परिणामदो अत्ता पोग्गला। गंध-तंबोलादिया जे उवभोगे अप्पणो कदा ते उवभोगदो अत्ता पोग्गला। असणपाणादिविहाणेण जे अप्पणो कदा ते आहारदो अत्ता पोग्गला । जे अणुराएण पडिग्गहिया ते ममत्तीदो अत्ता पोग्गला । जे सायत्तो ते परिग्गहादो अत्ता पोग्गला । __ अधवा, पोग्गलाणमत्ता रूव-रस-गंधफासादिलक्खणं सरूवं पोग्गलअत्ता णाम। तेसि च अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जभागवड्ढि-खेज्जभागवड्ढि-खेज्जगुणवड्ढि असंखेज्जगुणवड्ढि-अणंतगुणवड्ढि त्ति रूवादीणं छव्विहाओ वड्ढीओ होति । तासि परूवणा जहा भावविहाणे कदा तहा कायव्वा । सट्टाणस्स वि असंखेज्जलोगमेत्ताणि ठाणाणि होति । तेसि पि एवं चेव परूवणा कायव्वा । एवं पोग्गलात्तेत्ति समत्तमणुयोगद्दारं । जो दण्ड आदि पुद्गल हाथ अथवा परसे ग्रहण किय गये हैं वे ग्रहणसे आत्त पुद्गल कदलाते है । मिथ्यात्व आदि परिणामोंके द्वारा जो पुद्गल अपने किये गये हैं वे परिणामसे आत्त पुद्गल कहे जाते हैं। जो गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोग स्वरूपसे अपने किये गये हैं उन्हें उपभोगसे आत्त पुद्गल समझना चाहिये । भोजन-पान आदिके विधानसे जो पुद्गल अपने किये गये हैं उन्हें आहारसे आत्त पुद्गल कहते है जो पुद्गल अनुरागसे गृहीत होते हैं वे ममत्वसे आत्त पुद्गल हैं । जो आत्माधीन पुद्गल हैं उनका नाम परिग्रहसे आत्त पुद्गल हैं। अथवा, 'अत्त' का अर्थ आत्मा अर्थात् स्वरूप है। अतएव 'पोग्गलाणं-अत्ता पोग्गलअत्ता' इस विग्रहके अनुसार पुद्गलात्त ( पुद्गलात्मा ) पदसे पुद्गलोंका रूप, रस, गन्ध व स्पर्श आदि रूप लक्षण विवक्षित है। उन रूपादिकोंके अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धियां होती हैं। उनकी प्ररूपणा जैसे भावविधान में की गयी है वैसे करना चाहिये । स्वस्थानके भी असंख्यात लोक मात्र स्थान होते हैं । उनकी भी इसी प्रकारसे प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार पुद्गलात्त यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ताप्रती 'पोग्गलत्ते' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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