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________________ संकमा गद्दारे अणुभाग संक्रमो ( ४०५ असंखेज्जत्रासाउअतिरिक्ख- मणुसमिच्छा इट्ठीसु वि विज्झादसंकमो चेव बंधाभावादो । अपुव्वकरणपढमसमयप्पहूडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव गुणसंकमो' बंधाभावादो । उवरि असंकमो, पडिग्गहाभावादो । चदुसंठाग-च दुसंघडण - भग- दुस्सर अगादेज्ज-णीचा गोद - अय्य सत्य विहायगदीगं मिच्छाइट्ठिष्पहूडि जाव सासणसम्माइट्ठिति ताव अधापवत्तसंकमो । उवरि जाव अप्पमत्त संजदचरिमसमयो त्ति ताव विज्झादसंकमो, बंधाभावादो । अपुव्वकरणपढमसमय पहुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव गुणसंकमो, अप्पसत्थतादो । उवरि असंमो, पडिग्गहाभावादो । एवमपज्जत्तस्स वि । णवरि मिच्छाइट्ठम्हि चेव एदस्स अधापवत्तसंकमो । अजसकित्तीए अपज्जत्तभंगो | णवरि मिच्छाइट्टि पहुडि जाव पनत्तसंजदो त्ति एदिस्से अधापवत्तसंकमो, एदेसु गुणट्ठाणेसु बंधुवलंभादो । मिच्छत्तस्स विज्झादसंकमो गुणसंक्रमो सव्वसंकमो चेदि तिणि संकमा । तं जहापढसमय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालं उवसमसम्माइट्ठिम्हि मिच्छत्तस्स गुणसंकमो । खवणाए वि अपुव्वकरणपढमसमयप्पहूडि जाव च मट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति गुण संक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं होता । असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टियों में भी उनका विध्यातसंक्रम ही होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां पर इनके बन्धका अभाव है। आगे उनका संक्रम नही होता, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है । चार संस्थान, चार संहनन, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्र और अप्रशस्त विहायो - गति इनका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। आगे अत्रमत्तसंयतके अन्तिम समय तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, आगे उनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणहोता है, क्योंकि, वे अप्रशस्त प्रकृतियां हैं। आगे उनका संक्रम नहीं है, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है । इसी प्रकार अपर्याप्त नामकर्मके भी विषय में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इसका अधःप्रवृत्तसंक्रम केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है । अयशकीर्तिकी प्ररूपणा अपर्याप्त के समान है । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक इसका अधः प्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में उसका बन्ध पाया जाता है । मिथ्यात्व प्रकृति के विध्यातसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं । यथा- प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है । क्षपणा में भी अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अ-काप्रत्योः 'तिष्णिसंकमो' इति पाठः । मिच्छते । विज्झाद-गुणे सव्वं XXX ।। गो क. ४२३. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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