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________________ ४१४ ) छक्खंडागमे संतकम्म उवरि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमओ त्ति ताव गुणसंकमो। तत्तो उवरि संकमो णत्थि, बंधाभावेण पडिग्गहाभावादो। उवघादस्स वण्णचदुक्कभंगो । एदासि सत्तण्णं पयडीणं विज्झादसंकमो णत्थि' खवग-उवसामियसेडीसु वोच्छिण्णबंधत्तादो। उव्वेल्लणसंकमो णत्थि, अणुव्वेल्लणपयडित्तादो। सव्वसंकमो णत्थि, परपयडिसंछोहणेण अविण?त्तादो। असादावेदणीय-पंचसंठाण-पंचसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-अपज्जत्त-अथिर-असुहदूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्ति-णीचागोदाणं वीसणं पयडीणं अधापवत्तसंकमो, विज्झादसंकमो गुणसंकमो चेदि तिण्णिसंकमो । तं जहा- असादावेदणीय-अथिरअसुहाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो ति ताव अधापमत्तसंकमो, एत्थ एदासि बंधुवलंभादो। अप्पमत्तसंजदम्मि विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। उवरि गुणसंकमो जाव सुहमसांपराइयचरिमसमयो ति, अप्पसत्थत्तादो। उवरि संकमो पत्थि, पडिग्गहाभावादो। हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं मिच्छाइट्ठिम्हि अधापवत्तसंकमो, तत्थ एदासि बंधुवलंभादो। उवरि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति विज्झादसंकमो, बंधाभावादो। तक इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। आगे सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है। इसके आगे उनका संक्रम नहीं है, क्योंकि, बन्धके न होनेसे उनकी प्रतिग्रह प्रकृतियोंका वहां अभाव है । उपघातकी प्ररूपणा वर्णचतुष्कके समान है। इन निद्रा आदि सात प्रकृतियोंका विध्यात संक्रम नहीं होता, क्योंकि, क्षपक और उपशामक श्रेणियोंमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इनका उद्वेलनसंक्रम भी नहीं होता, क्योंकि, वे उद्वेलन प्रकृतियोंसे भिन्न हैं। सर्वसक्रम भी उनका सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्य प्रकृतियोंमें प्रक्षिप्त होकर उनका विनाश नहीं होता । ___असातावेदनीय, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, अस्थिर अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीचगोत्र ; इन बीस प्रकृतियोंके अधःप्रवृत्तसंक्रम, विध्यातसंक्रम और गुणसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं। यथा- असातावेदनीय अस्थिर और अशुभ इनका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है; क्योंकि, यहां इनका बन्ध पाया जाता है। अप्रमत्तसंयतमें उनका विध्यातसंक्रम होता है क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं होता। आगे सूक्ष्मसाम्मपरायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, वे अप्रशस्त प्रकृतियां हैं। इससे आगे उनका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है। हुण्डकमंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिकासंहननका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहांपर इनका बन्ध पाया जाता है। आगे अप्रमत्तसंयत तक इनका विध्यात. ४ अ-काप्रत्योरेतस्य स्थाने 'तत्थ' इति गठः। 8 अ-काप्रत्यो: 'तिणिसंकमो ' इति पाठः । दुक्खमसुहगदी। संहदि-संठाणदसं णीचापुण्णथिरछक्कं च ।। वीसण्हं विज्झादं अधापवत्तो गणो य xxx। गो. क. ४२२-२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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