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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४८१ जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । मणुसगइणामाए जह० वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लं । एवं देवगदीए। ओरालिय-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-तप्पाओग्गबंधण-संघाद-अंगोवंग-वण्ण गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं जह० वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लं । णीचागोदस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा। अवट्ठाणं णत्थि ' उच्चागोदस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । अवट्ठाणं णत्थि । एव पदेससंकमो पदणिक्खेवो समत्तो। पदेससंकमो वढिसंकमो कायव्वो । तं जहा- मदिणाणाव णस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्ढि-असंखेज्जभागहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा । सेसपदाणि णत्थि । सेसचदुणाणावरणीय-चक्खुदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं मदिणाणावरणभंगो। णिद्दापयलाणं अत्थि असंखेज्जभागवड्ढि-हाणि-असंखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्जगुणहाणि-अवट्ठाण-अवत्तव्वसंकमा। थीणगिद्धितियस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्ढि-असंखेज्जभागहाणी । संखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जगुणवड्ढीयो वि अत्थि, मिच्छत्तं गदसम्माइट्ठिम्मि थीणगिद्धितियसंतादो अण्णपयडीहितो* आगयदव्वस्स-संखेज्जभाग-गुणन्भहियस्स वि नामकर्मको जवन्य हानि स्तोक और वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है । मनुष्यगति नामकर्मकी जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थान तीनों समान हैं । इसी प्रकार देवगतिके सम्बन्धमे भी कहना चाहिये । औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, उनके योग्य बन्धन, संघात व अंगोपांग वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलबु, उपघात, पग्घात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर। पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण; इन नामप्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों तुल्य हैं। नीचगोत्रकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणी है। अवस्थान नहीं है । उच्चगोत्रकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणो है । अवस्थान नहीं है। इस प्रकार प्रदेशसंक्रपमें पदनिक्षेप समाप्त हुआ। प्रदेशसंक्रममें वृद्धिसंक्रमका कथन करते हैं । यथा- मतिज्ञानावरणके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, अवस्थान और अवक्तव्य ये चार संक्रमपद हैं । शेष पद नहीं हैं। शेष चार ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय कर्मोकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। निद्रा और प्रचलाके असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्य ये संक्रमपद हैं। स्त्यानगृद्धित्रिकके असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि संक्रम है । संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि पद भी हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वको प्राप्त हुए सम्यग्दृष्टि में स्त्यानगृद्धि आदि तीनोंके सत्वकी अपेक्षा अन्य प्रकृतियोंसे आया हुआ द्रव्य संख्यातभाग अधिक व संख्यातगुणा अधिक भी पाया ४ अ-काप्रत्योः 'पदेससंकमो' इति पाठः। * तापतौ संतादो । अण्णपयडीहिंतो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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