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________________ ४८०) छक्खंडाममे संतकम्म असंखे० गुणा । अवट्ठाणं णस्थि । अल्पसत्यागं धुवबंधोणमुक्कस्समबट्ठाणं थोवं । हाणी असंखे० गुणा । वड्ढी असंखे० गुणा । णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गणामाणं आदावुज्जोवाणं च उक्क० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । णीचागोदस्स गुणसंकमेण उक्क० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । उच्चागोबस्स उक्क० हाणी सत्तमाए पुढवीए पढमसमयणेरइयस्स हाणी* थोवा । तस्स चेव उव्वट्टियस्स पढमसमयतिरिक्खस्स णीचागोदस्स बंधमाणयस्स उक्क० वड्ढी विसे०, णेरइयस्स सम्माइट्ठीसु संचिदत्तादो । उच्च-णीचाणमवट्ठाणं णत्थि । एवमुक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । ___णाणावरणपंचयस्स जहण्णवड्ढी हाणी अवट्ठाणं सरिसं। णवदंसणावरणमिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-पंचंतराइयाणं जह० वड्ढी हाणी अवडाणं च तिणि दि तुल्लाणि । सादस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी विसेसाहिया । अवट्ठाणं णथि । असादस्स सादभंगो । सम्मत्तस्स जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । सम्मामिच्छ० सम्मत्तभंगो। हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जह० हाणी थोवा । वड्ढी विसेसा० । अवट्ठाणं पत्थि। इत्यि णव॒तयवेदाणं जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे. गुणा । अवट्ठाणं णत्थि।। -णिरयगइणामाए जह० हाणी थोवा । वड्ढी असंखे० गुणा । तिरिक्खगइणामाए है। अप्रशस्त ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। नरकगति और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मों तथा आप और उद्योत नामकर्मोंकी भी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है। नीचगोत्रकी गुणसंक्रमके द्वारा उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट हानि सातवीं पृथिवी के प्रथम समयवी नारकीके होती है, जो स्तोक है। वहांसे निकलकर नीचगोत्रको बांधनेवाले उमी प्रथम समयवर्ती ति चिके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है, जो हानिसे विशेष अधिक है ; क्योंकि, वह नारक सम्य दृष्टियोंमें संचित है। उच्च और नीच गोत्रोंका अवस्थान नहीं है। इस प्रकार उत्कष्ट अल्पबहत्व समाप्त हुआ। पांच ज्ञानावरण प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान सदृश्य हैं । नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और पांच अन्तगय प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं। सातावेदनीयकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि विशेष अधिक है। अवस्थान नहीं है। असातावेदनीयके प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य हानि स्तोक है और वृद्धि उससे असंख्यातगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा सम्यक्त्व प्रकृतिके समान है । हास्य, रति, अरति और शोक इनकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि उससे विशेष अधिक है। अबस्थान नहीं है। स्त्री और नपुंसक वेदोंकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणी है। अवस्थान नहीं है। नरकगति नामकर्मकी जघन्य हानि स्तोक व वृद्धि असंख्यातगुणी है। तिर्यंचगति * ताप्रतो । (हाणी ) ' इति पाः। प्रतिषु ' उवढियस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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