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________________ कमाणुयोगद्दारे पदेस संकमो ( ४७९ संजलणाणं पुरिसवेदस्स य उक्क० वड्ढी थोवा । उक्क ० हाणी अवद्वाणं च विसेसाहियं । लोभसंजलणाए उक्कस्तमवट्ठाणं थोवं । हाणी असंखेज्ज० गुणा । वड्ढी विसेसा० । छण्णं णोकसायाणमुक्क० हाणी थोवा । वड्ढी असंखेज्ज० गुणा० । अट्ठाणं णत्थि । इत्थि णवुंसयवेदाणं हस्स-रदिभंगो । णिरयगइणामाए उक्कहाणी थोवा । वड्ढी असंखे ० गुणा । एवं तिरिक्खगइणामाए । दोणमवद्वाणं णत्थि । मणुसगइणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे० गुणा । हाणी विसेसा | देवगइणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे० गुणा । हाणी विसेसा० । जहा देवगणामाए तहा जादिणाम आणुपुव्वीणामाणं च । ओरालियसरीरनामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखे ० गुणा । हाणी विसेसा० । वेउव्वियसरीरवेव्वियसरीर अंगोवंग बंधण-संघादाणं देवगइभंगो । आहारसरीरणामाए उक्क० हाणी थोवा | वड्ढी विसेसा । तेजा-कम्मइग्रसरीराणं सव्वासि चेव धुवबंधिणामाणं उक्कस्समट्ठाणं थोवं । हाणी असंखे ० गुणा । वड्ढी विसेसा० । वज्जरिसहणारायणसंघडणणामाए उक्कस्समवद्वाणं थोवं । वड्ढी असंखेज्जगुणा । हाणी विसेसा० । समचउरससंठाण-परघादउस्सास -पसत्थविहायगइ-तस बादर- पज्जत्त- पत्तेय तसीर-सुभगादेज्ज-सुस्सराणमुक्कस्समट्ठा थोवं । हाणी असंखे ० गुणा । वड्ढी विसेसा०| पंचसंठाण-पंच संघडण - अथिर- अजसकित्ति असुभ - दूभग- दुस्सर - अणादेज्ज - अप्पसत्य विहायगदीणं उक्क ० हाणी थोवा । वड्ढी 1 है । तीन संज्वलन कषायों और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि स्तोक है । उत्कृष्ट हानि और अवस्थान विशेष अधिक हैं । संज्वलन लोभका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि विशेष अधिक है। छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । अवस्थान नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी प्ररूपणा हास्य और रतिके समान है । नरकगति नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार तिर्यंचगति नामकर्मकी प्ररूपणा है । अवस्थान दोनोंका नहीं है । मनुष्यगति नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है। वृद्धि असंख्यातगुणी है। हानि विशेष अधिक है। देवगति नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है | वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । जैसे देवगति नामकर्मकी प्ररूपणा की गयी है वैसे ही जाति नामकर्मों और दो आनुपूर्वी नामकर्मोंकी भी करना चाहिये । औदारिकशरीर नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । वैक्रियिकशरीर व उसके अंगोपांग, बन्धन एवं संघात नामकर्मकी प्ररूपणा देवगतिके समान है । आहारकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि विशेष अधिक । तैजस व कार्मण शरीरों तथा सब ही ध्रुवबन्धी नामत्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि विशेष अधिक है । वज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्मका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । हानि विशेष अधिक है । समचतुरस्र - संस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, आदेव और सुस्वर इनका उत्कृष्ट अवस्थान स्तोक है । हानि असंख्यातगुणी है । वृद्धि विशेष अधिक है। पांच संस्थान, पांच संहनन, अस्थिर, अयशकीर्ति, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अप्रशस्त विहायोगति; इनकी उत्कुष्ट हानि स्तोक है । वृद्धि असंख्यातगुणी है । अवस्थान नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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