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________________ ३७२ ) छक्खंडागमे संतकम्म तिण्णमाउआणं एइंदियबंधिदपाओग्गणामपयडीणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं च भुजगार-अवट्ठिद-अवत्तव्वसंकामया भयणिज्जा। अप्पदरसंकामया णियमा अत्थि। ___णाणाजीवेहि कालो अंतरं च णाणाजीवभंगविचयादो साहेयव्वं । एत्तो अप्पाबहुअं-पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-सादासाद-बावीसमोहणीयाणं (भुजगार)संकामया थोवा। अवट्टिदसंकामया असंखेज्जगुणा। अप्पदरसंकामया संखे० गुणा। सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं अवढिदसंकामया थोवा। भुजगारसंकामया असंखे० गुणा। अवत्तव्वसंकामया असंखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा । अणंताणुबंधीणं अवत्तव्व० थोवा। भुजगार० अणंतगुणा। अवट्टिद० असंखे० गुणा । अप्पदर० संखे० गुणा । *णिरयाउअस्स अवट्टिय० थोवा । भुजगार० असंखे० गुणा । अवत्तव्व०० संखे० गुणा । अप्पदर० असंखे० गुणा। एवं देव-मणुस्साउआणं । तिरिक्खाउअस्स अवत्तव्वसंकामया पदरस्स असंखे० भागो। अवट्ठियसंकामया सव्वजीवाणं पलिदो० आयुकर्म, एकेन्द्रियके बन्धयोग्य नामप्रकृतियों, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजाकार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामक भजनीय हैं। इनके अल्पतर संक्रामक बहुत जीव नियमसे हैं। नाना जीबोंकी अपेक्षा काल और अन्तरको नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयसे सिद्ध करना चाहिये । यहां अलबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है-- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय और बाईस मोहनीय प्रकृतियों के भुजाकार संक्रामक स्तोक हैं। इनके अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं । भुजाकार संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्य संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुण हैं। अनन्तानुबन्धी कषायोंके अवक्तव्य संक्रामक स्तोक हैं। भुजाकार संक्रामक अनन्तगणे हैं। अवस्थित संक्रामक असंख्यातगुणे हैं । अल्पतर संक्रामक संख्यातगुणे हैं । नारकायके अवस्थित संक्रामक स्तोक हैं। भुजाकार संक्रामक असंख्यातगणे हैं । अवक्तव्य संक्रामक संख्यातगुणे हैं। अल्पतर संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार देवायु और मनष्यायके कहना चाहिये। तिर्यंच आयके अवक्तव्य संक्रामक प्रतरके असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थित संक्रामक सब जीवोंके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभाग रूप हैं। भुजाकार *णाणाजीवेहि भंगविचओ। मिच्छत्तस्स सव्वजीवा भुजगारसंकामगा च अप्पयरसंकामया च अवविदसंकामया च। सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं सत्तावीसभंगा। सेसाण मिच्छतभंगो। णवरि अवत्तव्वसंकामया भजियब्बा। क. पा. सु. पृ. ३३३, १९३-९७ . अ-काप्रत्योः 'अवत्त० संखे० गुणा', ताप्रतौ ' अवत्तब्व० असंखे० गुणा' इति पाठः। * सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवट्ठिदसंकामया । भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा। अवतव्वसंकामया असंखेज्जगुण । अप्पयरसंकामया असंखेज्जगुणा । अणंतागुबधीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्बसंकामया। भजगारसकामया अणंतगुणा। अवट्टिदसंकामया असंखेज्जगुणा। अप्पयरसंकामया संखेज्जगुणा। एवं सेसाणं कम्माणं । क. पा. सु पृ. ३३६, २२९-३७.* अ-का-ताप्रतिष्पलभ्यमानोऽयं नारकायु:सबंधी संदर्भो मप्रतितः कृतसंशोधने बहिष्कृतः। ताप्रतौ 'अप्पदर० (अवत्तव०) संखे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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