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________________ १५ लेस्सापरिणामाणुयोगद्दार दिवंदिय अहिणंदियतिहुवणं सुहत्तीए । लेस्सपरिणामसण्णियमणियोगं वण्णइस्लामो ॥ १ ॥ लेस्सापरिणामे त्ति अणुयोगद्दारं काओ लेस्साओ केण संरूवेण काए वड्ढीए हाणीए वा परिणमंति त्ति जाणावणट्टमागयं । किण्णलेस्साए ताव परिणमणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- किण्णलेस्सियो संकिलिस्समाणो ण अण्णं कमदि, सट्टा चेव छट्ठाणपदिदेण ठाणसंकमणेण वड्ढदि । किं छट्टाणपदिदत्तं ? जत्तो ठाणादो संकिलिट्ठो तत्तो द्वाणादो अनंतभागन्भहिया असंखेज्जभागन्भहिया संखेज्जभागन्भहिया संखेज्जगुणन्भहिया असंखेज्जगुणब्भहिया अनंतगुणन्भहिया वा लेस्सा होज्ज, एदं छट्ठाणपदिदत्तं । विसुज्झमाणो सट्ठाणे अनंतभागहाणि असंखे ० भागहाणि संखे ० भागहाणि संखे ० गुणहाणि असंखे० गुणहाणि - अनंतगुणहाणि त्ति छट्टाणपदिदेण हायदि, नीललेस्साए अनंतगुणहीणेण संकमदि I एवं किण्णलेस्सस्स संकिलेसमाणस्स एक्को वियप्पो किण्णलेस्सवड्ढीए । तीनों लोकोंको आनन्दित करनेवाले अभिनन्दन जिनेन्द्रकी अतिशय भक्तिपूर्वक वंदना करके ' लेश्यापरिणाम ' संज्ञावाले अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ॥ १ ॥ कौन लेश्यायें किस स्वरूपसे और किस वृद्धि अथवा हानिके द्वारा परिणमण करती हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ 'लेश्यापरिणाम' अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है । उनमें पहिले कृष्णलेश्या के परिणमनविधानका कथन करते हैं। यथा- कृष्णलेश्यावाला जीव संक्लेशको प्राप्त होता हुआ अन्य लेश्या में परिणत नहीं होता है, किन्तु षट्स्थानपतित स्थानसंक्रमण द्वारा स्वस्थानमें ही वृद्धिको प्राप्त होता है । शंका- षट्स्थानपतितका क्या स्वरूप है ? समाधान- जिस स्थानसे संक्लेशको प्राप्त हुआ है उस स्थानसे अनन्तभाग अधिक, असंख्य भाग अधिक संख्यातभाग अधिक, संख्यातगुणी अधिक, असंख्यातगुणी अधिक और अनन्तगुणी अधिक लेश्याका होना; इसका नाम षट्स्थानपतित है । उक्त कृष्णलेश्यावाला जीव विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि; इस प्रकार षट्स्थानपतित स्वरूपसे स्वस्थान में हानिको प्राप्त होता है । वही अनन्तगुणहानिके द्वारा नीलश्यारूपसे परिणत होता है । इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होनेवाले कृष्णलेश्या युक्त ताप्रतौ ' काउलेस्साओ' इति पाठः । संक्रमणं सद्वाण-परद्वाणं होदि किष्ण-सुक्काण । वड्ढीसु हिसणं उभयं हाणिम्मि सेस उभये वि ।। लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी । सट्टा अवरादो हाणी नियमा परद्वाणे || संकमणे छाणा हाणिसु वड्ढीसु होंति तण्णामा । परिमाणं च य पुव्व उत्तकमं होदि सुदा ।। गो. जी. ५०३-५०५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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