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________________ . ५७६ ) छक्खंडागमे संतकम्म एत्थ एदेसिमप्पाबहुअं कायव्वं । एवं पोगलअत्ते त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । णिधत्तमणिधत्ते त्ति अणुओगद्दारे इहमट्टपटं । तं जहा-- जमोकड्डिज्जदि उक्कड्डिज्जदि, परपडि ण संकामिज्जदि उदये ण दिज्जदि पदेसग्गं तं णिधत्तं णाम । तन्विवरीयमणिधत्तं । णिधत्तं पुण पयडीए केवडिभायेण अवणिज्जदि ? पलिदोवमस्सअसंखेज्जदिभाएण पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभाएण। जा उअसामणाये मग्गणा सा चेव एत्थ वि कायन्वा। एत्थतणपदाणमा बहुअपरूवणा च जाणिदूण कायव्वा । एवं णिधत्तमणिधत्ते त्ति समत्तमणुओमदारं । णिकाचिदमणिकाचिदं ति अणुओगद्दारे कधमपदं ? जं पदेतगंण वि ओकड्डिज्जदि ( ण वि उक्कड्डिज्जदि ) ण वि संकामिज्जदि ण वि उदए दिज्जदि तं णिकाचिदं णाम । तश्विरीयमणिकाचिदं। तं पयडीए पलिदोवमस्स असंखे० भागपडिभागियं । जा उवसामणाए मग्गणा सा चेव एदेसु दोसु कायन्वा । जं पदेसग्गं गुणसेडीए दिज्जदि तं थोवं । ( जं) उवसामिज्जदि पदेसग्गं तं असं० गुण । ज णिधत्तिज्जदि तमसंखे० गुणं । जणिकाचिज्जदि तमसंखे० गुणं । जमधापवत्तसंकमेण संकामिज्जदि तमसंखे० गुणं । यहां इनका अल्पबहुत्व करना चाहिये। इस प्रकार पुद्गलात्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। निधत्त अनिधत्त अनुयोगद्वारमें यह अर्थपद है। यथा- जो प्रदेशाग्र अपकर्षको प्राप्त कराया जाता है और उत्कर्षको भी प्राप्त कराया जाता है, किन्तु न तो परप्रकृति रूपमें संक्रान्त किया जाता है और न उदयमें दिया जाता है उसका नाम निधत्त है । इससे विपरीत अनिधत होता है। निधत्त प्रकृतिके कितनेवे भागसे अपनीत किया जाता है ? वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग व पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भागसे अपनीत किया जाता है । जो उपशामनाम मार्गणा है वही यहां भी करना चाहिये। यहांके पदोंके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा भी जानकर करना चाहिये । इस प्रकार निधत्त-अनिधत्त अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वारमें अर्थपद कैसा है ? जो प्रदेशाग्र न अपकृष्ट किया जाता है, न उत्कृष्ट किया जाता है, न संक्रान्त किया जाता है, और न उदयमें भी दिया जाता है उसे निकाचित कहते हैं। इससे विपरीत अनिकाचित है। वह प्रकृतिके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रतिभागवाला है। जो उपशामनामें मार्गणा है उसे ही इन दोनोंमें करना चाहिये । जो प्रदेशाग्र गुणश्रेणि रूपसे दिया जाता है वह स्तोक है। जो प्रदेशाग्र उपशान्त किया जाता है वह असंख्यातगुणा है। जो प्रदेशाग्र निधत स्वरूप किया जाता है वह असंख्यातगुणा है। जो निकाचित अवस्थाको प्राप्त कराया जाता है वह असंख्यातगुणा है । जो अधःप्रवृत्तसंक्रमसे संक्रमणको प्राप्त कराया जाता है वह असंख्यातगुणा है । प्रतिषु 'तमोकड्डिज्जदि ' इति पाठः । ४प्रतिष 'पदेसट' इति पाठः। प्रतिष 'कदमपद' इति पाठः। अ-काप्रत्योः 'ओक्कड्ड दिज्जदि', ताप्रती 'ओकड़डदि, ( ण वि उक्कड़ादि-)' इति पाठः। अतोऽग्रे अ-काप्रत्यो पच्छिमक्खधाणयोगद्दारान्तरान्तर्गतः 'अंतोमहत्त' पर्यन्तोऽयं सदर्भः स्खलितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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