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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४७७ उववण्णो, अपडिवदिदेण सम्मत्तेण मणुस्सेसु गदो, तदो अपडिवदिदेण एक्कत्तीससागरोवमिएसु देवेसु उववण्णो, अंतोमुत्तमुववण्णो मिच्छत्तं गदो, अंतोमुत्तावसेसे सम्मत्तं पडिवण्णो, बे-छावट्ठीयो० अणुपालेदूण जाधे चरिमसमयसम्माइट्ठी ताधे जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहणिया वड्ढी। तिरिक्खगइणामाए अवट्ठाणं णेव अस्थि । बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालिय तदो खवणाए अहिमुहचरिमसमयअधापवत्त करणं मोत्तूण जहणिया हाणी केण : कारणेण चरिमसमयसम्माइट्ठिस्स कोरदि त्ति वुत्ते वुच्चदे- बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण जो तत्तो खवेदि तस्स उक्कस्सिया सम्मत्तद्धा थोवा, बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण जो मिच्छत्तं गच्छदि तस्स सम्मत्तद्धा विसेसाहिया । एदेण कारणेण चरिमसमयसम्माइटिस्स जहणिया तिरिक्खगइणामाए हाणी कदा, चरिमसमयअधापवत्तकरणे ण. कदा । सव्वेसि धुवबंधियाणं णामाणं जहण्णवड्ढि-हाणि-अवट्ठाणाणि कस्स? तप्पाओग्गजहण्णाणि कम्माणि कादूण जम्हि अवट्ठाणं कम्मस्स होज्ज तम्हि वढि हाणी अवट्ठाणं वा जहण्णयं होदि । वेउब्वियसरीर-पढमसंठाण-पढमसंघडण-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-आदेज्ज-सुस्सरणामाणं जहणिया वड्ढी वाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, पुन: अप्रतिपतित सम्यक्त्वके साथ मनुष्योंमें गया है, तत्पश्चात् अप्रतिपतित सम्यवत्व के साथ इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां उत्पन्न होने के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, अन्तर्मुहर्त शेष रहनेपर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, तथा जो दो छयासठ सागरोपम काल तक उसका पालन कर जब अन्तिम समयदर्ती सम्यग्दृष्टि होता है तब उसके तिर्यग्गति नामकर्मकी जघन्य हानि होती है । उसीके अनन्तर काल में उसकी जघन्य वृद्धि होती है । तिर्यग्गति नामकर्मका अवस्थान नहीं है । शंका- दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर तत्पश्चात् क्षपणाके अभिमुख अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणको छोडकर अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके किस कारणसे उसकी जघन्य हानि की जाती है ? समाधान- दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कर पश्चात् जो क्षपणा करता है उसका उत्कृष्ट सम्यक्त्वकाल स्तोक होता है, परन्तु दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कर पश्चात् जो मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसका सम्यक्त्वकाल विशेष अधिक होता है । इस कारण अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके तिर्यग्गति नामकर्मकी जघन्य हानि की गयी है और अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणके वह नहीं की गयी है। सब ध्रुवबन्धी नामप्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होते है? तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मोको करके जहांपर कर्मका अवस्थान होता है वहां पर उनकी जवन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते हैं। वैक्रियिकशरीर. प्रथम संस्थान. प्रथम संहनन. परघात. प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, आदेय और सुस्वर नामकर्मोकी ४ ताप्रती 'पडिवण्णो, (मि) बे छावठोयो' इति पाठः । ताप्रतौ 'हाणी। केण' इति पाठः। ताप्रती : करणेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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