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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो अवट्रिय-अवत्तव्वसंकमो, अप्पदरसंकामगो णत्थि । अणादिसंतकम्मियाणं णामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं णाणावरणभंगो। . एयजीवेण कालो- णाणावरणस्स भुजगारसंकामओ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । अप्पदरसंकामयाणं कालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अवट्ठियसंकामयाणं जह० एयसमओ, उक्क० बेछावद्धिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त--सोलसकसाय-णवणोकसाय-सव्वणामपयडीणं-उच्च-णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णाणावरणभंगो। णवरि आहारच उक्क० अवट्टियस्स पलिदो० असंखे० भागो। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अवट्टिदस्स जह० अंतोमुहुत्तं । तित्थयरणामाए भुजगार० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्ठिय० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चदुण्णमाउआणं भुजगार० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं । अप्पदर० जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अवट्ठिय० जह० एगसमओ। उक्क० देव-णिरयाउआणं तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि, मणुसतिरिक्खाउआणं तिणिपलिदो० सादिरेयाणि । कालादो अंतरं णेयव्वं । णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं च साहेदूण णेयव्वं । अवक्तव्यसंक्रम भी होता है। तीर्थकर नामकर्मका भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रम होता है; किन्तु उसका अल्पतर संक्रामक नहीं होता। अनादिसकर्मिक नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तरायकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है- ज्ञानावरणके भुजकारसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय व उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त मात्र है। अल्पतरसंक्रामकोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अवस्थितसंक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पाधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। नौ दर्शनावरण. सातावेदनीय. असातावेदनीय. मिथ्यात्व. सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सब नामप्रकृतियों, उच्चगोत्र, नीचगोत्र और पांच अन्तरार प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि आहारचतुष्कके अवस्थितसंक्रामकका काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके कहना चाहिये। विशेष इतना है कि इनके अवस्थितसंक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्महुर्त है। तीर्थंकर नामकर्मके भुजाकारसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे मात्र है। उसके अवस्थितसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। चार आय कर्मोके भजाकारसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्महर्त मात्र है। इनके अल्पतरसंक्रामकका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। अवस्थितसंक्रामकका काल जघन्यसे एक समय है । उत्कर्षसे वह देवायु और नारकायुका साधिक तेतीस सागरोपम तथा मनुष्य व तिर्यच आयुका साधिक तीन पल्योपम मात्र है। कालके आश्रयसे अन्तरको भी ले जाना चाहिये । नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल और अन्तरको भी सिद्ध करके ले जाना चाहिये । त्रि प्रती । देवणेरइयाणं आउअं' इत पाठ Jain Educationaअप्रतो देवणेरइयाणं आउअं' इते पा & Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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