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छक्खंडागमे संतकम्मं
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तो भुजगार संक अट्ठपदं । तं जहा जे एहि अणुभागस्स प.या संकामिज्जति तेजइ अनंतर विदिक्कते समए संकामिदकद्द एहिंतो बहुआ होंति तो एसो भुजगार संकमो' अह जइ ततो थोवा होंति तो एसो अप्पदरसंकमो । जदि तत्तियो चेव दोसु वि समएस फयाणं संकमो होदि तो एसो अवट्ठियसंकमो । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं --मदिआवरणस्स भुजगार संकमो कस्स ? जो संतकम्मस्स हेट्ठदो तेण सम वा बंधतो अच्छिदो सो तदो उवरिमाणुभागं बंधिय बंधावलियादिक्कतं संक्रममाणस्स भुजगार संकमो । अप्पदरसंकमो अणुभागखंडयघादेण विणा णत्थि । जेण अणुभागखंडयं उक्कोरिज्जमणमुक्किण्णं सो से काले अप्पदरसंकामओ । अवट्टिदसंकामओ को होदि ? भुजगारअप्पदर- अवत्तव्ववदिरित्तो । चत्तारिणाणावरणीय-गवदंसणावरणीय सादासादमिच्छत्ताणं मदिआवरणभंगो | एव सोलसकसाय - णवणोकसायाणं । णवरि एत्थ अवत्तव्वसंकामओ वि अस्थि । सम्मत्त -- सम्मामिच्छत्ताणं अत्थि अप्पदरअवट्ठिद -- अवत्तव्वसंकमो भुजगारसंकमो णत्थि । चदुण्णमाउआणं सादियसंतकम्मियाणं णामपयडोणं उच्चागोदाणं ण णाणावरणभंगो । णवरि अवत्तव्वसंकमो वि अत्थि । तित्थयरणामाए अत्थि भुजगार-
यहां भुजाकार संक्रम में अर्थपदकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- अनुभाग के जो स्पर्धक इस समय संक्रमणको प्राप्त कराये जाते हैं वे यदि अनन्तर बीते हुए समय में संक्रामित अनुभागस्पर्धकों की अपेक्षा बहुत है तो यह भुजाकार संक्रम कहलाता है । परन्तु यदि इस समय में संक्रमणको प्राप्त कराये जानेवाले वे ही अनुभागस्पर्धक अनन्तरम् वीते हुए समय में संक्रामित स्पर्धकोंकी अपेक्षा स्तोक हैं तो यह अल्पतर संक्रम कहा जाता है । यदि दोनों ही समयों में उतना उतना मात्र ही अनुभागस्पर्धकोंका संक्रम होता है तो यह अवस्थित संक्रम कहलाता है । ( पूर्व में असंक्रामक होकर संक्रम करना, इसे अवक्तव्य संक्रम कहा जाता है । । इस अर्थ पदके अनुसार स्वामित्वका कथन करते हैं- मतिज्ञानावरणका भुजाकार संक्रम किसके होता है ? जो जीव सत्कर्मसे कम अथवा उसके बराबर ही अनुभागको बांधता हुआ स्थित है वह उससे अधिक अनुभागको बांधकर व बन्धावलीको विताकर जब उसको संक्रात कर रहा हो तब उसके मतिज्ञानावरणका भुजाकार संक्रम होता है। अल्पतर संक्रम अनुभागकाण्डकघात के विना नहीं होता । जो उत्कीर्ण किये जानेवाले अनुभागकाण्डकको उत्कीर्ण कर चुका है वह अनन्तर समय में उसका अल्पतरसंक्रामक होता है । अवस्थितसंक्रामक कौन होता है ? भुजाकार अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकसे भिन्न जीव अवस्थित संक्रामक होता है। शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, और मिथ्यात्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायों के सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां अवक्तव्य संक्रामक भी होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रम होता है; उनका भुजाकार संक्रम नहीं होता । चार आयु कर्मों, सादिसत्कर्मिक नामप्रकृतियों और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि इनका
* अप्रतौ ' तेजइय अनंतर ' इति पाठ: ।
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XXX अप्रत थोवो' इति पाठः ।
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