SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं -- तो भुजगार संक अट्ठपदं । तं जहा जे एहि अणुभागस्स प.या संकामिज्जति तेजइ अनंतर विदिक्कते समए संकामिदकद्द एहिंतो बहुआ होंति तो एसो भुजगार संकमो' अह जइ ततो थोवा होंति तो एसो अप्पदरसंकमो । जदि तत्तियो चेव दोसु वि समएस फयाणं संकमो होदि तो एसो अवट्ठियसंकमो । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं --मदिआवरणस्स भुजगार संकमो कस्स ? जो संतकम्मस्स हेट्ठदो तेण सम वा बंधतो अच्छिदो सो तदो उवरिमाणुभागं बंधिय बंधावलियादिक्कतं संक्रममाणस्स भुजगार संकमो । अप्पदरसंकमो अणुभागखंडयघादेण विणा णत्थि । जेण अणुभागखंडयं उक्कोरिज्जमणमुक्किण्णं सो से काले अप्पदरसंकामओ । अवट्टिदसंकामओ को होदि ? भुजगारअप्पदर- अवत्तव्ववदिरित्तो । चत्तारिणाणावरणीय-गवदंसणावरणीय सादासादमिच्छत्ताणं मदिआवरणभंगो | एव सोलसकसाय - णवणोकसायाणं । णवरि एत्थ अवत्तव्वसंकामओ वि अस्थि । सम्मत्त -- सम्मामिच्छत्ताणं अत्थि अप्पदरअवट्ठिद -- अवत्तव्वसंकमो भुजगारसंकमो णत्थि । चदुण्णमाउआणं सादियसंतकम्मियाणं णामपयडोणं उच्चागोदाणं ण णाणावरणभंगो । णवरि अवत्तव्वसंकमो वि अत्थि । तित्थयरणामाए अत्थि भुजगार- यहां भुजाकार संक्रम में अर्थपदकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- अनुभाग के जो स्पर्धक इस समय संक्रमणको प्राप्त कराये जाते हैं वे यदि अनन्तर बीते हुए समय में संक्रामित अनुभागस्पर्धकों की अपेक्षा बहुत है तो यह भुजाकार संक्रम कहलाता है । परन्तु यदि इस समय में संक्रमणको प्राप्त कराये जानेवाले वे ही अनुभागस्पर्धक अनन्तरम् वीते हुए समय में संक्रामित स्पर्धकोंकी अपेक्षा स्तोक हैं तो यह अल्पतर संक्रम कहा जाता है । यदि दोनों ही समयों में उतना उतना मात्र ही अनुभागस्पर्धकोंका संक्रम होता है तो यह अवस्थित संक्रम कहलाता है । ( पूर्व में असंक्रामक होकर संक्रम करना, इसे अवक्तव्य संक्रम कहा जाता है । । इस अर्थ पदके अनुसार स्वामित्वका कथन करते हैं- मतिज्ञानावरणका भुजाकार संक्रम किसके होता है ? जो जीव सत्कर्मसे कम अथवा उसके बराबर ही अनुभागको बांधता हुआ स्थित है वह उससे अधिक अनुभागको बांधकर व बन्धावलीको विताकर जब उसको संक्रात कर रहा हो तब उसके मतिज्ञानावरणका भुजाकार संक्रम होता है। अल्पतर संक्रम अनुभागकाण्डकघात के विना नहीं होता । जो उत्कीर्ण किये जानेवाले अनुभागकाण्डकको उत्कीर्ण कर चुका है वह अनन्तर समय में उसका अल्पतरसंक्रामक होता है । अवस्थितसंक्रामक कौन होता है ? भुजाकार अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकसे भिन्न जीव अवस्थित संक्रामक होता है। शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, और मिथ्यात्वकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायों के सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां अवक्तव्य संक्रामक भी होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रम होता है; उनका भुजाकार संक्रम नहीं होता । चार आयु कर्मों, सादिसत्कर्मिक नामप्रकृतियों और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। विशेष इतना है कि इनका * अप्रतौ ' तेजइय अनंतर ' इति पाठ: । Jain Education International XXX अप्रत थोवो' इति पाठः । • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy