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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३९७ मिच्छत्त० अणंतगुणो । एवं तिरिक्खगईए जहण्णाणुभागसंकमदंडओ समत्तो। तिरिक्खजोणिणीसु सव्वाणि पदाणि जहा तिरिक्खगदीए कदाणि तहा कायव्वाणि । मणुसेसु ओघे जहण्णाणुभागसंकमदंडयादो ताव णाणत्तं णत्थि जाव णिरयगइ त्ति । तदो णिरयगइणामादो देवगदि० अणंतगुणो। णिरयाउ० अणंतगुणो । देवाउ० अणंतगुणो । मणुसगई अणंतगुणो । उच्चागोद० अणंतगुणो । ओरालिय० अणंतगुणो । एतो अवसेसाणि पदाणि जहा ओघजहण्णदंडए कदाणि तहा कायव्वाणि। एवं मणुस्सेसु जहण्णाणुभागसंकमदंडओ समत्तो । ___ जहा मणुस्सेसु तहा मणुसिणीसु । जहा रइएसु तहा देवेसु देवीसु च । जहा तिरिक्खगईए तहा बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदिएसु । केण कारणेण जहा तिरिक्खगईए तहा विलिदिएसु त्ति भणिदं ? देवगइ-मणुसगइ-णिरयगइ-वेउव्वियसरीरचउक्कउच्चागोदाणं संजुत्तपढमसमयजहण्णाणुभागसंतकम्मस्प्त विलिदिएसुवलंभादो, अणंतागुबंधिणो पुव्वं विसंजोइदसासणसम्माइट्ठिस्स दुसमयसंजुत्तस्स तस्स जहण्णाणुभागस्स विलिदिएसुवलंभादो च । तेण जहा तिरिक्खगदीए तहा विलिदिएसु त्ति सुहासियं। अनन्तगुणा है । मिथ्यात्व में अनन्तगुणा है। इस प्रकार तिर्यंचगतिमें जघन्य अनुभागसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। ___जिस प्रकारसे तिर्यंचगतिमें सब पदोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे तिर्यंच योनिमतियोंमें भी उक्त सब पदोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । मनुष्योंमें ओघनिरूपित जघन्यअनुभागसंक्रमदण्डककी अपेक्षा नरकगति नामकर्म तक कोई विशेषता नहीं है। तत्पश्चात् नरकगति नामकर्मकी अपेक्षा देवगति नामकम में वह अनन्तगुणा है। उससे नारकायुमें अनन्तगुणा है । देवायुमें अनन्तगुणा है। मनुष्यगति नामकर्ममें अनन्तगुणा है। उच्चगोत्रमें अनन्तगुणा है। औदारिकशरीरमें अनन्तगुणा है। यहां शेष पदोंकी प्ररूपणा जसे ओघ जघन्य दण्डकमें की गई है बैसे करना चाहिये । इस प्रकार मनुष्योंमें जघन्य अनुभागसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। उक्त प्ररूपणा जिस प्रकार मनुष्योंमें की गई है उसी प्रकार मनुष्यनियोंमें भी करना चाहिये । उक्त दण्डकको प्ररूपणा जिस प्रकार नारकियोंमें की गयी है उसी प्रकार देवोंमें और देवियोंमें भी करना चाहिये। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें तिर्यंचगतिके समान प्ररूपणा करना चाहिये। शंका-विकलेन्द्रिय जीवोंकी वह प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान किस कारणसे बतलायी है ? समाधान- इसका कारण यह है कि देवगति, मनुष्यगति, नरकगति, वंक्रियिकशरीरचतुष्क और उच्चगोत्रका संयुक्त होने के प्रथम समयवर्ती जघन्य अनुभागसत्कर्म विकलेन्द्रिय जीवोंमें पाया जाता है, तथा सासादनसम्यग्दृष्टिमें पूर्व विसंयोजित अनन्तानुबन्धीका संयुक्त होनेके द्वितीय समयवर्ती वह जघन्य अनुभागसत्कर्म विकलेन्द्रिय जीवोंमें पाया जाता है। इस कारण विकलन्द्रियोंकी जो वह प्ररूपणा तिर्यंचगतिके समान कही है, यह ठीक ही कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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