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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३८७ चत्तारि समया। अजहण्णाणुभागसंकामगो केव० ? जह० पलिदो० असंखे० भागो अदुवस्साणि सादिरेयाणि, उक्क० अप्पप्पणो पयडिसंतस्स कालो। एवं जहण्णुक्कस्सअणुभागसंकमकालो समत्तो । एयजीवेण अंतरं। (तं)जहा- पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय- असादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-णिरय-तिरिक्ख-मणुस्साउआणं अप्पसत्थणामपयडीणं च णीचागोद-पंचतराइयाणं च उक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केव० ? जह अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। साद-जसकित्ति उच्चागोदाणं जासि च णामपयडीणं खवगे परभवियणामबंधज्झवसाणस्स चरिमसमए उक्कस्साणुभागो बज्झदि तासि च उक्कस्साणुभागसंकामयंतरं णत्थि । सम्मत्त--सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्समणुभागसंकामयंतरं जहण्णं जहण्णपयडिअंतरं उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । देवाउअस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-वज्जरिसहसंघडण-उज्जोव-ओरालियचउक्काणं देवाउअभंगो। आदावणामाए अप्पसत्थणामपयडिभंगो। एवमुक्कस्संतरं समत्तं । जहण्णाणुभागसंकामयंतरं- पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-चदुसंजलण-णवणोकसायाणं पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं णस्थि । संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय मात्र है । उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग और साधिक आठ वर्ष तथा उत्कर्षसे अपने अपने प्रकृतिसत्त्वके कालके समान है। इस प्रकार जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकका काल समाप्त हुआ। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, अप्रशस्त नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन मात्र है । सातावेदनीय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रका तथा जिन नामप्रकृतियोंका क्षपकके द्वारा परभविक नामकर्मोके बन्धाध्यवसानके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभाग बांधा जाता है उनके भी उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका अन्तर नहीं होता। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल जघन्य प्रकृतिअन्तरके समान तथा उत्कृष्ट उपार्घ पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। उक्त अन्तरकाल देवायका जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वज्रर्षभसंहनन, उद्योत और औदारिकचतुष्कका उक्त अन्तरकाल देवायुके समान है। आतप नामकर्मके इस अन्तरकालकी प्ररूपणा अप्रशस्त नामप्रकृतियोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर समाप्त हुआ। जघन्य अनुभाग संक्रामकके अन्तरकी प्ररूपणा की जाती है-- पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; इनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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