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________________ ४२० ) छक्खंडागमे संतकम्म उच्चागोदस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सासणसम्माइट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो। उवरि असंकमो, पडिग्गहाभावादो। सत्तमपुढविणेरइएसु विज्झादसंकमो । तेउ-वाउकाइएसु उज्वेल्लणसंकमो, तत्थ उव्वेल्लणपाओग्गपरिणामाणमवलंभादो। चरिमुव्वेल्लणखंडए गुणसंकमो। तस्सेव चरिमफालीए सव्वसंकमो। तिण्णिसंजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होति । तं जहा- तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स च मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो । चरिमखंडयचरिमफालीए एदासि सव्वसंकमो । हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो चेदि तिणि संकमा होति । तं जहा- मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्वकरणचरिमसमयो त्ति एदासिमधापवत्तसंकमो। उवरि गुणसंकमो जाव चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति । चरिमफालीए सव्वसंकमो।। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसह-तित्थयराणमधापवत्तसंकमो विज्झादसंकमो चेदि दोण्णि संकमा।तं जहा-ओरालियदुग-पढमसंघडणाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति अधापवत्तसंकमो, तत्थ बंधदसणादो । असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु विज्झादसंकमो तत्थ एदासि बंधाभावादो । तित्थयरस्स उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसक्रम होता है । आगे उसका संक्रम नहीं होता है, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतिका अभाव है । सातवी पृथिवीके नारकियोंमें उसका विध्यातसंक्रम होता है। तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमें उसका उद्वेलनसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां उद्वेलनके योग्य परिणाम पाये जाते हैं । अन्तिम उद्वेलनकाण्डकमें गुणसंक्रम होता है । उसीकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदके अधःप्रवृत्तसंक्रम और सर्वसंक्रम ये दो संक्रम होते हैं । यथा- तीन संज्वलन कषायों और पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्तसंक्रम होता है । इनके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साके अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं। यथा- मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक इनका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । आगे अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फालि तक गुणसंक्रम होता है । अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । ___औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थंकर प्रकृतिके अधःप्रवृत्तसंक्रम और विध्यातसंक्रम ये दो संक्रम होते हैं । यथा औदारिकद्विक और प्रथम संहननका मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, वहांपर उनका बन्ध देखा जाता है । असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंचों और मनुष्योंमें इनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, उनमें इनका बन्ध नहीं होता । तीर्थंकर प्रकृतिका असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अ-काप्रत्योः 'दोणिसंकमो' इति पाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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