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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४१९ जं सत्थाणे तं गुणसेडीए दिज्जदि, जं परत्थाणे तं पदेसग्गं विसेसहाणीए दिज्जदि । एस विही पढमस्स टिदिकंडयस्स । जो विही पढमस्स टिदिखंडयस्स परूविदो सो चेव विही बिदियखंडयप्पहुडि जाव दुचरिमखंडओ त्ति ताव सव्वखंडयाणं परवेयन्वो । चरिमद्विदिखंडयपमाणं पलिदो० असंखे० भागो। तस्स पदेसग्गं सव्वं परत्थाणे चेव दिज्जदि असंखेज्जगुणाए सेढीए । पढमट्टिदिखंडयस्स द्विदीओ बहुगाओ। बिदियस्स विसेसहोणाओ। तदियस्स टिदिखंडयस्स द्विदीओ विसेसहीणाओ। एवमणंतरोवणिधाए गेयध्वं जाव दुचरिमदिदिखंडओ त्ति । दुचरिमझिदिखंडयट्टिदीहितो चरिमझिदिखंडयस्सर द्विदीओ असंखे० गुणाओ। __ परंपरोवणिधाए पढमट्टिदिखंडयमुवणिहाय अत्थि काणिचि द्विदिखंडयाणि संखेज्जगुणहीणाणि काणिचि असंखे० गुणहीणाणि । तत्थ जं दुचरिमट्ठिदिखंडयमाहारदुगस्स तस्स जं चरिमसमए संकमदि पदेसग्गं परत्थाणे सो जहण्णओ उज्वेल्लणसंकमो। तेण संकममाणेण तिस्से पयडीए ताधे जं सेसयं कम्मं तं पलिदोवमस्स असंखे० भागेण अवहिरिज्जदि । सव्वकम्मं पुण अंगुलस्स असंखे० भागेण अवहिरिज्जदि । संपहि पयदं परूवेमो-- आहारदुगस्स उव्वेलणकालब्भंतरे उव्वेल्लणसंकमो। चरिमट्ठिदिखंडए गुणसंकमो । तत्थेव चरिमफालीए सव्वसंकमो । दिया जाता है और जो प्रदेशाग्र परस्थानमें दिया जाता है वह विशेषहानिके क्रमसे दिया जाता है। यह विधि प्रथम स्थितिकाण्डककी है । जो विधि प्रथम स्थितिकाण्डककी कही गयी है वही विधि द्वितीय काण्डकसे लेकर विचरम काण्डक तक सब काण्डकोंकी कहना चाहिये । अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उसका सब प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित श्रेणिसे परस्थानमें ही दिया जाता है । प्रथम स्थितिकाण्डककी स्थितियां बहुत हैं। द्वितीय स्थितिकाण्डककी स्थितियां विशेष हीन हैं । तृतीय स्थितिकाण्डककी स्थितियां विशेष हीन हैं । इस प्रकार अनन्तरोपनिधासे द्विचरम स्थितिकाण्डक तक ले जाना चाहिये। द्विचरम स्थितिकाण्डककी स्थितियोंसे चरम स्थितिकाण्डककी स्थितियां असंख्यातगुणी हैं। परम्परोपनिधाकी अपेक्षा प्रथम स्थितिकाण्डक उपनिधामें कितने ही स्थितिकाण्डक संख्यातगुणे हीन हैं और कितने ही असंख्यातगुणे हीन हैं। उनमें जो आहारद्विकका द्विचरम स्थितिकाण्डक है उसका जो प्रदेशाग्र अन्तिम समय में परस्थान में संक्रान्त होता है वह जघन्य उद्वेलनासंक्रम है। उसके द्वारा संक्रान्त होता हुआ उक्त प्रकृतिका जो उस समय शेष कर्म है वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपहृत होता है । परन्तु सब कर्म अंगुलके असंख्यातवें भागसे अपहृत होता है। अब प्रकृतकी प्ररूपणा करते हैं-- आहारद्विकका उद्वेलनकालके भीतर उद्वेलनसंक्रम होता है। अन्तिम स्थितिकाण्ड में गुणसंक्रम होता है। उसमें ही अन्तिम फालिका सर्वसंक्रम होता है । ED अ-काप्रत्यो: ' सदं ', ताप्रती 'सदं ( व्वं ), इति पाठः। ४ प्रतिष 'चठ्ठिदिखंडयस्स' इति पाठः । ताप्रती 'खंडयमवणिहा य अथि । काणिचि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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