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________________ (८) यस्थितिसंक्रमका प्रमाण अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धमेंसे दो आवलि कम करने पर जो प्रमाण शेष रहे उतना प्राप्त होता है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनकी जघन्य स्थिति सयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, इसलिए वहाँ पर उसमें से उदयावलिप्रमाण स्थितिको छोडकर शेष स्थितिका संक्रमण सम्भव होने से उनका जघन्य स्थितिसंक्रम उदयावलि कम अन्तर्मुहुर्तप्रमाण और यत्स्थितिसंक्रम उदयावलिसहित अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होता है। यहाँपर मूलमें इन प्रकृतियोंकी यत्स्थिति तथा स्त्यानगद्धित्रिक आदि बत्तीस प्रकृतियोंकी यस्थिति नहीं बतलाई गई है। किन्तु वह सम्भव है, इसलिए हमने उसका अलगसे निर्देश कर दिया है । तथा मूलमें देवगति आदिका जघन्य स्थितिसंक्रम बतलाते समय जो प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं उनमें तीन अंगोपांग भी परिगणित किये जाने चाहिए, क्योंकि, इनका जघन्य स्थितिसंक्रम भी सयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें होता है। आगे जो जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामित्व कहा है उससे भी यह बात स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार प्रमाणानुगमका निर्देश करने के बाद जघन्य और उत्कृष्ट भेदोंका आश्रयकर स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर और अल्पबहत्वका निर्देश करके भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन अनुयोगद्वारोंका संक्षेपमें निरूपण किया है। __ इस प्रकार स्थितिसंक्रमका विचार कर आगे अनुभागसंक्रमका प्रकरण प्रारम्भ होता है। इसमें सब कर्मोको देशघाति, सर्वघाति और अघाति इन भेदोंमें विभक्तकर इनके आदि स्पर्धक परस्परमें किनके समान हैं और किनके किस क्रमसे प्राप्त होते हैं यह बतलाकर उत्कर्षणसे प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है, अपकर्षणसे प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है और अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण होकर प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनुभागसंक्रम है इस अर्थपदका निर्देश किया गया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि मल प्रकृतियोंमें उत्कर्षण और अपकर्षण इन दो प्रकारोंसे और उत्तर प्रकृतियोंमें यथासम्भव तीनों प्रकारोंसे अनुभागसंक्रम होता है। आगे अपकर्षणसे प्राप्त होनेवाले अनुभागसंक्रमका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि आदि स्पर्धकका अपकर्षण नहीं होता, क्योंकि, इसके नीचे जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाका अभाव है। इसी प्रकार जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाके अंतर्गत जितने स्पर्धक हैं उनका अपकर्षण नहीं होता। मात्र इनके ऊपर जो स्पर्धक अवस्थित हैं उनका अपकर्षण होता है, क्योंकि, इनकी अतिस्थापना और निक्षेप पाये जाते हैं। इतना निर्देश करने के बाद यहाँ प्रकृत विषयमे उपयोगी अल्पबहुत्व दिया गया है। आगे उत्कर्षणके विषयमें यह नियम दिया गया है कि चरम स्पर्धक की स्थापना और निक्षेप का अभाव है, इसलिए जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापना प्रमाण स्पर्धक नीचे सर ककर जो स्पर्धक अवस्थित है उसका उत्कर्षण होता है। इसके आगे अपकर्षण और उत्कर्षणकी अपेक्षा निक्षेप और अतिस्थापनाका अल्पबहुत्व देकर अर्थपद समाप्त किया गया है । आगे प्रमाणानुगम, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, संन्निकर्ष, स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्वका निर्देश करके कुछ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिका विचारकर अनुभागसंक्रमप्रकरण समाप्त होता है । __ आगे संक्रमस्थानोंको सत्कर्मस्थानोंके अनुसार जानने की सूचना कर प्रदेशसंक्रमके विषयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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