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________________ समय स्थितिके परिणाममें अबाधाकाल भी गभित है । पर यह उत्कर्षण और अपकर्षण बंधके प्रथम समयसे लेकर एक आवलिकाल तक सम्भव नहीं है। यही कारण है कि आयुकर्मकी यस्थिति कहते समय नरकायु आदिकी अपनी उत्कृष्ट स्थिति में एक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधाकाल भी सम्मिलित कर लिया है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमके प्रमाणका अनगम करने के बाद जघन्य स्थितिसंक्रमके प्रमाणका निर्देश किया है । खुलासा इसप्रकार है- पाँच ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण, सम्यक्त्व, संज्वलन लोभ, चार आय और पाँच अन्तराय इनकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहने पर उदयावलिसे उपरितन एक समयमात्र स्थितिका अपकर्षण होता है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थितिप्रमाण है और यस्थितिसंक्रम समयाधिक एक आवलिप्रमाण है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकगतिद्विक, तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनकी क्षपणा होने के अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम उक्त प्रमाण कहा है । परन्तु क्षपणाके अन्तिम समयमें इनके उदयावलिमें स्थित निषेकोंका संक्रम नहीं होता. इसलिए उक्त कालमें उदयावलिके मिला देनेपर इनकी यस्थिति उदयावलि अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी यस्थिति उदयावलि अधिक न कहकर अन्तर्महर्त अधिक कहनी चाहिए, क्योंकि, इन दोनों प्रकृतियोंकी क्षपणाकी समाप्ति अन्तरकरण में रहते हुए होती है और अन्तरकरणका काल उस समय अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, इसलिए यह स्पष्ट है कि अन्तरकरणमें इनके प्रदेशोंका अभाव होनेसे यस्थिति इतनी बढ़ जाती है । निद्रा और प्रचलाकी स्थिति दो आवलि और एक आवलिका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर इनकी मात्र उपरितन एक स्थितिका संक्रम होता है ऐसा स्वभाव है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति और यस्थितिसक्रम आवलिका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो आवलि होता है। हास्यादि छहकी क्षपणाके अन्तिम समय में जघन्य स्थिति संख्यात वर्षप्रमाण होती है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम संख्यात वर्षप्रमाण होता है। पर इनकी क्षपणाकी समाप्ति भी अन्तरकरणमें रहते हुए होती है और उस समय अन्तरकरणका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, इसलिए इनकी यस्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक संख्यात वर्ष होती है। क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध दो महिना प्रमाण होता है, मानसंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध एक महिनाप्रमाण होता है, मायासंज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध अर्ध मासप्रमाण होता है और पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण होता है। इन प्रकृतियोंके उक्त स्थितिबन्धमेंसे अलग अलग अन्तर्महर्तप्रमाण आबाधाकालके कम कर देनेपर उनके जघन्य स्थिति संक्रमका प्रमाण आ जाता है जो क्रमश: अन्तर्मुहूर्त कम दो माह, अन्तर्मुहूर्त कम एक माह, अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध मास और अन्तर्मुहुर्त कम आठ वर्षप्रमाण होता है । तथा इनका यस्थितिसंक्रम क्रमसे दो आवलि कम दो माह, दो आवलि कम एक माह, दो आवलि कम अर्धमास और दो आवलि कम आठ वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि, अपना अपना जघन्य स्थितिबन्ध होनेपर उसका एक आवलि काल तक संक्रम नहीं होता, इसलिए अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धमेंसे एक आवलि तो यह कम हो गई और संक्रम प्रारम्भ होने पर एक आवलि काल तक रहता है, इसलिए एक आवलि यह कम हो गई। अत: इन प्रकृतियोंके जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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