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________________ लेस्सापरिणामाणुयोगद्दारे किण्णादीनं परिणमणविहाणं ( ४९५ अतगुणहीणहाणीए परिणमइ । एवं तेउलेस्सस्स संकिलिस्संतस्स दो वियप्पा | तेउलेस्सिओ विसुज्झमाणो सत्थाणे छट्टाणपदिदाए वड्ढीए वड्ढदि, पम्मलेस्साए अनंतगुणवढी परिणम । एवं तेउलेस्सस्स परिणमणविहाणं समत्तं । संपहि पम्मलेस्साए वुच्चदे । तं जहा- पम्मलेस्सियो विसुज्झमाणो सत्थाणे छट्ठाणपदिदाए वड्ढी वढदि, सुक्कलेस्साए अनंतगुणवड्ढीए परिणमदि । संकि लिस्समाणओ पम्मले स्सिओ सट्टाने छट्टाणपदिदाए हाणीए हायदि, तेउलेस्साए अनंतगुणहाणीए हायदि । एवं पम्मलेस्सस्स परिणमणविहाणं समत्तं । सुक्कलेस्साए उच्चदे । तं जहा - सुक्कलेस्सियो संकिलिस्समाणो सत्थाणे छट्ठाणपदिदार हाणीए हायदि, पम्मलेस्साए अनंतगुणहीणहाणीए परिणमइ । एवं संकिलिस्तस्स दो वियप्पा | सुक्कलेस्सियो विसुज्झमाणो सट्टाणे छट्टाणपदिदाए वड्ढीए वड्ढदि, अण्णलेस्ससंकमो णत्थि । सुक्कलेस्सस्स विसुज्झमाणस्स एक्को चेव वियप्पो । एवं सुक्कलेस्साए परिणमण विहाणं समत्तं । संकम-पडिग्गहाणं जहण्णुक्कस्सयाणं तिव्व-मंददाए एत्थ अप्पाबहुअं कायव्वं । हीनताको प्राप्त होता है, वही अनन्तगुणहीन हानिके द्वारा कापोतलेश्यासे परिणत होता है । इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होनेवाले तेजलेश्या युक्त जीवके दो विकल्प है । तेजलेश्यायुक्त विशुद्ध प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थानमें वृद्धिको प्राप्त होता है, अनन्तगुणवृद्धि द्वारा पद्मलेश्यासे परिणत होता है । ( इस प्रकार विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले तेजलेश्यायुक्त जीवके दो विकल्प है । ) इस प्रकार तेजलेश्यायुक्त जीवके परिणमनका विधान समाप्त हुआ । अब पद्मलेश्याके परिणमनविधानका कथन करते हैं । यथा पद्मलेश्यायुक्त जीव विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धिके द्वारा स्वस्थानमें वृद्धिको प्राप्त होता है, वही अनन्तगुणवृद्धिके द्वारा शुक्ललेश्यासे परिणत होता है । संक्लेशको प्राप्त होनेवाला पद्मलेश्या संयुक्त जीव षट्स्थानपतित हानिके द्वारा स्वस्थान में हीनताको प्राप्त होता है, वही अनन्तगुणी हानिके द्वारा तेजलेश्यामें जाकर हीनताको प्राप्त होता है । इस प्रकार पद्मलेश्यावाले के परिमनका विधान समाप्त हुआ । शुक्ललेश्या के परिणमनविधानका कथन करते हैं । यथा - शुक्ललेश्यावाला संक्लेशको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित हानिके द्वारा स्वस्थानमें हानिको प्राप्त होता है, वही अनन्त - गुणहीन हानिके द्वारा पद्मलेश्यासे परिणत होता है इस प्रकार संक्लेशको प्राप्त होते हुए शुक्ललेश्यायुक्त जीवके दो विकल्प | शुक्ललेश्यायुक्त जीव विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ षट्स्थानपतित वृद्धिके द्वारा स्वस्थानमें वृद्धिको प्राप्त होता है, उसका अन्य लेश्यामें संक्रम नहीं होता । विशुद्धिको प्राप्त होते हुए शुक्ललेश्यावालेका एक ही विकल्प है । इस प्रकार शुक्ललेश्याका परिणमनविधान समाप्त हुआ । यहां तीव्र-मंदताकी अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट संकम और प्रतिग्रहके अल्पबहुत्वका कथन करते For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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