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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ४०५ कम्मादो पक्खेवुत्तरं बंधिय आवलियादिक्कतं संक मेंतस्स जह० वड्ढी । तं पक्खेवमंतोमुहुत्तेण घादिय संकामेंतस्स जह० हाणी। एगदरत्थ अवट्ठाणं । णीचागोदस्स अणादियणामपयडीगं भंगो। उच्चागोदस्स अणंताणुबंधिभंगो । एवं सामित्तं समत्तं । अप्पाबहुअं। तं जहा- णाणावरणस्स उक्क० हाणी थोवा। वड्ढी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । णवदंसणावरणीय-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-अप्पसत्थणामपयडीणं णीचागोद-पंचंतराइयाणं च णाणावरणभंगो। सादस्स उक्कस्सिया हाणी थोवा। वड्ढी अवट्टाणं च अणंतगुणं । सव्वासि णामपयडीणं पसत्थाणं उच्चागोदस्स च सादभंगो । आदावणामाए णाणावरणभंगो। आउआणं उक्कस्सिया हाणी थोवा । वड्ढी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । एवमुक्कस्सप्पाबहुअंक समत्तं । जहण्णपदणिक्खेवप्पाबहुअं। तं जहा- मदिआवरणस्स जह० हाणी थोवा। वड्ढी अवट्ठाणं च अणंतगुणं। चदुणाणावरण-छदसणावरण-चदुसंजलण--णवणोकसाय-पंचतराइयाणं मदिआवरणभंगो । थीणगिद्धितिय-सादासाद-मिच्छत्त-अटुकसायाणं-वड्ढिहाणि-अवट्ठाणाणि तिण्णि वि तुल्लाणि । अणंताणुबंधीणं वड्ढी थोवा । हाणि-अवट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । सम्मत्तस्स हाणी थोवा । अवट्ठाणमणंतगुणं । सम्मामिच्छत्तस्स अनुभागको बांधकर आवली अतिक्रान्त उसका संक्रम करनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि होती है । उस प्रक्षेपको अन्तर्महुर्त घातकर संक्रम करनेवालेके उनकी जघन्य हानि होती है। दोनों में से किसी भी एकमें उनका जघन्य अवस्थान होता है। नीचगोत्रकी प्ररूपणा अनादिक नामप्रकृतियोंके समान है। उच्चगोत्र की प्ररूपणा अनन्तानुबन्धी के समान है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। ___ अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । यथा- ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमहानि स्तोक है। वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक हैं। नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, अप्रशस्त नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और अन्तरायके प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीयकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं। सब प्रशस्त नामप्रकृतियां और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है। आतप नामकर्मकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। आयु कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि स्तोक है। वृद्धि व अवस्थान विशेष अधिक हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। जघन्य पदनिक्षेप विषयक अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते है। यथा- मतिज्ञानावरणकी जघन्य हानि स्तोक है। वृद्धि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं । चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तरायकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है । स्त्यानगद्धित्रय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं। अनन्तानुबन्धी कषायोंकी वृद्धि स्तोक है। हानि व अवस्थान अनंतगुणे हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिकी हानि स्तोक है। अवस्थान अनन्तगुणा है। सम्यग्मिथ्यात्वकी ताप्रतौ ‘एवंमप्पाबहुगं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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