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________________ लेस्साकम्माणुयोगद्दारे किण्णा दिलेस्साक णिद्दावचनबहुलो घणघण्णे* होइ तिव्वसण्णाओ । लाए लेस्साए वसेण जीवो हु पाभो ॥ ३ ॥ किण्णलेस्साए वृत्तसव्वकज्जेसु जहण्णुज्जमं काउलेस्सा कुणइ । वृत्तं च रूसइ दिइ अण्णं दूसइ बहुसो य सोय - भयबहुलो । असुअइ परिहव परं पमंसइ य अप्पयं बहुसो || ४ || णय पत्तियइ पर सो अप्पाणं पिव परे वि मण्णंतो । तूसइ अहिवंतो ण य जाणइ हाणि वड्ढीयो ।। ५ ।। मरणं पत्थेइ रणे देइ सुबहुअं पि थुव्वमाणो दु । ण गणइ कज्जमकज्जं काऊए पेरियो जीवो ।। ६ ।। अहिंसयं महु-मांस-सुरासेवावज्जियं * सच्चमहं चत्तचोरिय - परयारं एदेसु कज्जेसु जहण्णुज्जमं जीवं तेउलेस्सा कुणइ । वृत्तं च जाणइ कज्जमकज्जं सेयमसेयं च सव्वसमपासी । दय - दाणरओ मउओ तेऊए कीरए जीवो D ॥ ७ ॥ ( ४९१ अभिमानी, मायाचारी, आलसी, अभेद्य, निद्रा ( या निन्दा ) व धोखेबाजी में अधिक धन-धान्य में तीव्र अभिलाषा रखनेवाला, तथा अधिक आरम्भको करनेवाला होता है ।। २-३ ॥ कापोत लेश्या जीवको कृष्णलेश्या के सम्बन्ध में ऊपर कहे गये समस्त कार्योंमें जघन्य उद्यमशील करती है । कहा भी है Jain Education International यह जीव कापोतलेश्यासे प्रेरित होकर रुष्ट होता है; दूसरोंकी निन्दा करता है, उन्हें बहुत प्रकार से दोष लगाता है, प्रचुर शोक व भयसे संयुक्त होता है, दूसरोंसे असूया ( ईर्षा ) करता है, परका तिरस्कार करता है, अपनी अनेक प्रकारसे प्रशंसा करता है, वह अपने ही समान दूसरों को भी समझता हुआ अन्यका कभी विश्वास नहीं करता है, अपनी प्रशंसा करनेवालोंसे संतुष्ट होता हैं, हानि-लाभको नहीं जानता है, युद्धमें मरणकी प्रार्थना करता है, दूसरों द्वारा प्रशंसित होकर उन्हें बहुतसा पारितोषिक देता है, तथा कर्तव्य और अकर्तव्यके विवेक से रहित होता है ।। ४६ ।। तेजलेश्या अहिंसक, मधु मांस व मद्य के सेवन से रहित, सत्यबुद्धि तथा चोरी व परदाराका त्यागी; इन कार्यों में जीवको जघन्य उद्यमवाला करती है। कहा भी है तेजलेश्या जीवको कर्तव्य - अकर्तव्य तथा सेव्य असेव्यका जानकार, समस्त जीवोंको समान समझनेवाला, दया- दान में लवलीन, और सरल करती है ।। ७ ।। प्रतिषु 'वणवण्णो' इति पाठ: । अ-काप्रत्योः ' जहष्णजभं' इति पाठः । अ-काप्रत्योः ' धव्वमागो' इति पाठः । * ताप्रती 'मांससेवासुरावज्जियं' इति पाठः । गो. जी. ५१४. * गो. जी. ५०९-१०. * अप्रतौ ' तूसहि' इति पाठः । गो. जी. ५११-१३ 8 प्रतिषु ' सच्चमइच्चतंचोरिय ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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